दुनिया के इतिहास में अभी तक हड़प्पा सभ्यता की लिपि को नहीं पढ़ा जा सका है। आखिर क्या कहना चाहते थे सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग? कुछ तो संदेश हमें देना चाहते थे। इसी प्रयास में लगे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर विजय सिंह के हाथ कुछ ऐसा लगा कि वे उछल पड़े, मारे खुशी के झूमने लगे। घड़ी में देखा शाम के 6 बजे थे। कैंपस में सन्नाटा ही सन्नाटे को मात दे रहा था। तभी अचानक उनके बेसिक फोन की घंटी बजी। उठाया तो अंदर से आवाज आई, 'प्रोफेसर तुम जो काम कर रहे हो उसे तुरंत बंद करो वरना...'। इससे पहले कि प्रोफेसर कुछ बोलते, फोन कट चुका था। आखिर कौन हो सकता है, जो मुझे रोकना चाहता?
जल्दी से प्रोफेसर ने अपना ऑफिस बंद किया और तेज-तेज कदमों से बाहर की ओर चलने लगे। स्वयं के कदमों की आवाज ही उनकी धड़कनें बढ़ा रही थीं। मन ही मन सोचते हुए जा रहे थे कि रहस्य का पता चल गया। क्या सच में ऐसा संभव हो सकता? आखिर उस रहस्यमयी मुहर तक पहुंचना है मुझे। कुछ इसी प्रकार के खयालों में खोए हुए अपनी ही धुन में प्रोफेसर विश्वविद्यालय के गेट के बाहर निकले ही थे कि इतने में तीन स्कार्पियो ने उनका रास्ता रोका।
इससे पहले कि प्रोफेसर चिल्लाते, उनमें से 3-4 व्यक्ति उतरे एवं जबरन उनको अंदर बिठाकर चल पड़े। किसी सुनसान प्राचीन खंडहर में लाकर पटक दिया। प्रोफेसर इतने बलीष्ट भी नहीं थे कि उन सभी से मुकाबला कर सकें। कुछ लोग उनके आसपास में मुस्तैदी से खड़े थे। उन सभी का चेहरा किसी काले कपड़े से बंधा हुआ था, सिर्फ आंखें ही दिखाई दे रही थी। ऐसे में उनको पहचानने की कोशिश करना व्यर्थ था। ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या आज ही इनको ये सब करना था? जबकि अभी-अभी मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा रहस्य खोज निकाला। मेरी तो किसी से कोई दुश्मनी भी नहीं।
कुछ इसी प्रकार के विचारों में वे डूबे हुए थे कि इतने में उन सभी का मुखिया सामने आया। उसके चेहरे पर भी काला कपड़ा बंधा था। बाहर से देखने में वह कद में काफी लंबा, बॉडी पहलवान की तरह एवं शरीर का रंग थोड़ा काला था। विजयसिंह सोचने लगे- 'ये गुंडे इतने ताकतवर और प्रोफेसर इतने कमजोर क्यों होते? मैंने आज तक किसी पहलवान प्रोफेसर को नहीं देखा। क्या मुझे भी अखाड़े जाना चाहिए था?'
इतने में मुखिया प्रोफेसर के सीधे सामने आकर बोला- 'ओय प्रोफेसर... तोहार जो रिसर्च हमार आर्यों पर किया, वाको तुरंते ही वापस लो, वरना तोहार जान गई। जल्दी ही अपना रिसर्चवा मीडिया औरन पत्रकारनवा के यीहां धरन दो कि ये ससुरा आर्यनवा विदेशी नहीं बल्कि यीहा भारतीयन ही थे।
उसने प्रोफेसर के मुंह के पास आकर रौबदार आवाज में कहा- 'प्रोफेसर ई बात अच्छे से समझ लो। हमारी पहचान पर अगर जरा सी आंचनवा आई तो तोहार गुर्दे छिलन के छतरी बनाय लेवेंगे। समझा के नहीं?' प्रोफेसर के अब कुछ कुछ समझ आ रहा था कि बात क्या है।
'माफ करना भाई साहब, किंतु आर्यों के भारत आगमन वाली बात को तो 6 महीने से ऊपर हो गया। आप किसी को इस तरह नहीं मनवा सकते। इतिहास में जो सही है, उसको कितने दिन छिपाओगे? जोर-जबरदस्ती से क... ब... त... क... किसी... को...?' प्रोफेसर आगे भी कुछ बोलना चाहते थे किंतु उस व्यक्ति ने उनका गला जोर से दबा दिया।
अब प्रोफेसर साहब को सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। अब वे मर जाएंगे। ऐसे लोग किसी पर दया नहीं करते। उन्होंने आईएसआईएस के आतंकवादियों के वीडियो वॉट्सएप पर देख रखे थे। अब तो गए काम से। आर्यों के आगमन ने तो मरवा दिया। कम से कम एक चाय पिलाकर तो गला दबाते। प्रोफेसर को चाय का बहुत ही शौक था। एक बार आखिरी ख्वाहिश तो पुछते। विजय सिंह कुछ इसी प्रकार के विचारों से सामना कर रहे थे कि इतने में उसने गला छोड़ दिया। जान में जान आई। बच गए।
'ऐ... प्रोफेसरवा... ज्यादा ज्ञान मत पिला वरना... याईस इसी जगह ससुरे 3-3 को एकन गोली से मारा है। हा... हा... हा... हा... साला आया इतिहास का ज्ञान देने। उसने इसे कुछ फिल्मी कुछ रजनीकांत के अंदाज में कहा। 'ठीक... है... ठीक... है... जैसा आप चाहते हो, वैसा ही होगा', प्रोफेसर ने पिंड छुड़ाने के लिए हां में हां मिलाई।
दरअसल, पिछले दिनों प्रोफेसर सिंह का एक आर्टिकल 'आर्य एवं उनका मूल निवास' नाम से 'द हिन्दू' न्यूजपेपर में प्रकाशित हुआ था। प्रोफेसर विजय सिंह ने यह मत दिया था कि आर्यों का मूल निवास स्थान भारत नहीं, बल्कि दक्षिणी यूराल पर्वत के आसपास था जिससे कुछ कट्टरतावदी नाखुश थे। कुछ प्रतिक्रियावादी लोगों ने इसका तीव्र विरोध भी किया किंतु मामला यहां तक पहुंच जाएगा, नहीं सोचा था। इस बात को 6 महीने से ऊपर हो गए थे। आखिर ये गुंडाभाई इतना लेट कैसे? खैर, जो भी हो ऐसे समय में उचित यही था कि विजय सिंह उनकी बात मानकर चुपचाप निकल लें।
बहरहाल, उसने प्रोफेसर सिंह को वापस दिल्ली अपने कैंपस के पास लाकर छोड़ दिया। प्रोफेसर मन में सोचने लगे कि आखिर ये कैसे लोग हैं? कहां की डेमोक्रेसी? यहां पर तो कुछ नया सोचना ही गुनाह है। प्रोफेसर सिंह जेएनयू के जाने-माने इतिहासकार थे। उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास, जिसमें भी सिन्धु घाटी सभ्यता भी है, के संदर्भ में विशेष कार्य किया है।
इस समय रात के तकरीबन 8 बजे होंगे। हवा कुछ मायूस, कुछ मुरझाए व कुछ उदास से बच्चे के समान चल रही थी। आसमान साफ था, तारे चमक रहे थे, पर प्रोफेसर सिंह का मन विचलन से भरा हुआ था। कितना मुश्किल है कि जीवन में तन और मन दोनों हर समय एकसाथ रहे। विजय सिंह का तन तो घर पर था, पर मन किसी अनिष्ट के होने की आशंका से विचलनभरे वैराग्य से युक्त था। इंसान भी क्या अजब प्राणी है? क्या अनोखी देन है उस परमात्मा की? हमने पूरे ब्रह्मांड को तो समझ लिया, पर स्वयं को नहीं समझ पाए। कहते हैं कि आपके विचार परिस्थितियों का निर्माण करते हैं किंतु जब परिस्थितियां ऐसी जटिल बन जाएं तो विचार अपना आदर्श छोड़ देते हैं।
प्रोफेसर ने एक बार तो सोचा कि पुलिस में अभी इत्तला कर दें, पर अभी इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य करना था। इस सदी का एक महान रहस्य सामने आने वाला था। घर पहुंचकर जेब में हाथ डाला तो देखा कि वह डायरी गायब थी जिस पर सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि के कुछ रहस्यात्मक संकेत लिखे थे।
धत् तेरी की... हो गया कबाड़ा... अब क्या करूं...? उस डायरी में बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत छुपे थे। प्रोफेसर के जीवनभर की रिसर्च का सार था। आज जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे वह भी उसी में लिखा था। कोई उनके रिसर्च में इतनी रुचि क्यों लेगा? क्या वाकई वह उस रहस्य तक पहुंच जाएगा... गजब हो जाएगा... पूरी सभ्यता का रहस्य समाप्त...। नहीं... नहीं... हो सकता डायरी ऑफिस में ही छुट गई हो।
प्रोफेसर भागते हुए सीधे विश्वविद्यालय ऑफिस पहुंचे। सोचा, कहीं जल्दी-जल्दी में डायरी वहीं तो नहीं भूल आए, पर वहां कुछ नहीं मिला। शायद उन लोगों ने निकाल ली किंतु वह तो आर्य आगमन के संबंध में थी... नहीं... नहीं... वे... मूर्ख बना रहे थे...। जरूर डायरी चुराना उनका ही काम है। वह मेरा रहस्य... ओह... नो...। उन्होंने मेरा ध्यान आर्य आगमन की तरफ मोड़कर बड़ी कुशलता से यह कारीगरी कर दी ताकि मैं उनके खिलाफ कोई कम्प्लेन वगैरह करूं, तब तक उनका काम हो जाएगा। वे उस रहस्यमयी मुहर को चुरा ले गए तो मेरी जीवनभर की मेहनत गई काम से।
अब क्या करें, क्या नहीं? के भाव में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर प्रोफेसर वहीं धम से बैठ गए। सोचने लगे कि इंसान पका-पकाया खाने में कितना तत्पर रहता। यूनिवर्सल बेसिक इंकम का कॉन्सेप्ट इसी का तो नतीजा है। अमेरिकी मनोविज्ञान के जनक विलियम जेम्स ने कहा था कि आपके अवचेतन मन में दुनिया को हिलाने की शक्ति है, फिर इंसान क्यों नहीं अपनी शक्ति को पहचानता? क्यों दूसरों के विचार व वस्तुएं चुराने में लगा रहता? यहां पर कोई प्रयास करना नहीं चाहता, सबको सीधा मिल जाए तो खुश। पर समस्या ये है कि आदमी किसी की सुनता कहां? हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा कि- 'यहां कोई किसी की नहीं सुनता।' अगर लोग ढंग से सुन लेते तो एक विचारक ही काफी होता। बेचारे इतने विचारकों को पैदा होने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
बहरहाल, वे चोर जो भी हो, उस रहस्यमयी मुहर को चुराने गए होंगे। इसी विचार से प्रोफेसर सीधे कार लेकर नेशनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री, नई दिल्ली की तरफ रवाना हो गए, जहां उस रहस्यमयी मुहर समेत सभी सिन्धु घाटी सभ्यता की मुहरें रखी थीं। रास्ता ज्यादा लंबा नहीं था किंतु आशंकाएं हमेशा वक्त काटना मुश्किल कर देतीं। जीवन में हम जो पाना चाहते हैं, उसके नजदीक पहुंचने पर उसके खोने का डर भी उतना ही बढ़ जाता है। प्रोफेसर को कुछ नहीं सूझ रहा था। उस एक मुहर से पूरी सिन्धु घाटी सभ्यता का राज खुलने वाला था। उस मुहर के पीछे लिखे संकेतों से वे स्वयं उस गुप्त रहस्य को दुनिया के सामने लाने से कुछ कदम ही दूर थे।
प्रोफेसर की कार म्यूजियम से लगभग 600 मीटर ही दूर होगी कि अचानक चारों तरफ से पुलिस ने उन्हें घेर लिया। वे समझ नहीं पा रहे थे कि माजरा क्या है? उसमें से एक दिल्ली पुलिस का अधिकारी तेज-तेज कदमों से प्रोफेसर विजय सिंह के पास आकर बोला- 'प्रोफेसर साहब, आपको म्यूजियम में चोरी करवाने के आरोप में अरेस्ट किया जाता है।' उसने अपने हाथ में प्रोफेसर साहब की डायरी दिखाते हुए कहा- 'ये आपकी गिरफ्तारी का सबूत आपकी हस्तलिखित डायरी है जिसमें आपने हड़प्पा की कई मुहरें म्यूजियम से लाने के बारे में लिखा हैं, इसके नीचे आपके हस्ताक्षर भी हैं और ये आपकी स्वयं की लिखावट है।' पूरे आत्मविश्वास से वह बोलते जा रहा था- 'मेरे खयाल से ये सबूत आपकी गिरफ्तारी के लिए काफी होंगे प्रोफेसर साहब।'
'धत् तेरी की... चोर... रहस्यमयी... मुहर... ले गए। पीछे छोड़ गए मेरी डायरी... नामुराद कहीं के। सब कबाड़ा हो गया।' प्रोफेसर सारा वाकया समझ गए। प्रो. विजय सिंह को गिरफ्तार होने की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी कि उस मुहर के चोरी होने की थी।
उन्होंने दिल्ली पुलिस कमिश्नर निशांत को फोन लगाया। निशांत एवं विजय सिंह दोनों सहपाठी थे। निशांत के कहने पर पुलिस वाले प्रोफेसर साहब को सीधे कमिश्नर निवास ले आए। निशांत और प्रोफेसर सिंह दोनों किसी समय साथ में मुखर्जी नगर, दिल्ली में आईएएस की तैयारी करते थे। दोनों का मुख्य परीक्षा के लिए वैकल्पिक विषय इतिहास था। निशांत का चयन तो आईपीएस के पद पर हो गया किंतु विजय सिंह का उस परीक्षा में नहीं हुआ। '
कालांतर में उनका जेएनयू में इतिहास के प्रोफेसर के पद पर चयन हो गया। इस बात का विजय सिंह को जरा भी इल्म नहीं था कि उनका आईएएस में चयन नहीं हुआ बल्कि वे अपनी जगह खुश थे। हम जीवन में कोशिश करते हैं तो उस मुकाम या उसके लेवल तक पहुंच ही जाते हैं। बस, जरूरत कोशिश करने की होती। विजय सिंह का इतिहास प्रेम उनको यहां तक ले आया। इसी जुनून के चलते प्रोफेसर विजय सिंह ने कई इतिहास की पुस्तकें, कई शोधपत्र आदि प्रकाशित करवाए थे।
रात के 9 बज चुके थे। हवा का रुख अभी भी रूखा-रूखा-सा था। निशांत के घर पहुंचकर विजय सिंह ने सारा घटनाक्रम बयां किया। उसका पहला सवाल यही था कि 'विजय आखिर तुमने किस रहस्य की खोज की और वे लोग तुमसे क्यों इसके पीछे पड़े? और वह रहस्यमयी मुहर क्या है?' निशांत ने गंभीरता से पूछा।
'दरअसल, बात यह है कि हड़प्पा सभ्यता की लिपि संकेतात्मक पहेली की तरह है। हर एक संकेत एक पहेली की तरफ इशारा करता है।'
प्रोफेसर की बात पूरी होने से पहले ही निशांत उत्सुकता से बोला- 'किंतु वे लिपि चिह्न तो भाव चित्रात्मक हैं।'
'हां, अभी तक यही हमारी मान्यता थी किंतु ऐसा नहीं है। ये सभी चिह्न किसी एक रहस्यमयी मुहर की तरफ संकेत कर रहे हैं।' प्रोफेसर साहब का वाक्य पूरा होते ही निशांत ने पीछे खड़े पुलिस के सिपाही को दो चाय लाने का इशारा किया। निशांत जानता था विजय को चाय ज्यादा पसंद है।
'तुम कहना क्या चाहते हो?' निशांत ने स्पष्ट करने को कहा।
'तुम इतना तो जानते हो कि इन्द्र के नेतृत्व में 1500-1600 ईपू के लगभग आर्यों ने सिन्धु सभ्यता पर भीषण आक्रमण किए थे। इन आक्रमणों के डर से सैंधव लोगों ने अपनी सारी धरोहर, सोना, साहित्य सबके सब किसी गुप्त रहस्यात्मक स्थान पर छिपा दिए। पीछे कुछ पहेलीनुमा संकेत छोड़ दिए ताकि कुछ वर्षों बाद जब आर्य वापस चले जाएं तो खजाना पुन: प्राप्त कर सकें। इन पहेलियों को आर्य नहीं पढ़ सके और वह संपत्ति व सोना किसी गुप्त स्थान पर सुरक्षित रहे। कालांतर में आर्यों ने भारत में स्थायी जीवन प्रारंभ कर लिया।
इतिहास गवाह है कि आर्यों को सैंधव सभ्यता के निवासियों से कुछ भी नहीं मिला, न दौलत, न सोना-चांदी। इससे खिन्न होकर आर्यों ने पूरी सैंधव सभ्यता को तहस-नहस कर दिया था। प्राचीन भारत के सभी इतिहासकार इस बात को एकमत से स्वीकारते हैं कि सिन्धु सभ्यता के विनाश में आर्यों का भी हाथ था। जब आर्यों को यहां कुछ भी हासिल नहीं हुआ तो उन्होंने गंगा-यमुना दो-आब की तरफ रुख किया तथा वहां ग्रामीण जीवन व्यतीत करने लगे।'
निशांत प्रोफेसर की बात अवाक्-सा सुन रहा था। बात पूरी हुई ही थी कि चाय आ गई। दोनों चाय पीते हुए वार्तालाप करने लगे।
'मान लें कि पतन का कारण केवल आर्य थे, पर ये लिपि व खजाने वाली बात कैसे साबित होती? ऐसा तो किसी इतिहासकार ने नहीं कहा', निशांत ने चाय पीते हुए कहा।
प्रोफेसर लैपटॉप पर गूगल इमेज पर सिन्धु सभ्यता के अवशेष दिखाते हुए बोले- 'इसी बात पर तो मैंने इतने दिनों रिसर्च किया। अब तुम ध्यान से देखो। इस पूरी सभ्यता में जितने भी संकेत मिले, उनमें सभी में 3 की संख्या कॉमन है।'
प्रोफेसर ने निशांत को लैपटॉप की तरफ इशारा करते हुए सिन्धु सभ्यता के कुछ इमेज दिखाते हुए कहा, 'उस कूबड़ वाले सांड की मुहर को देखो। इसके ऊपर 3 खड़ी पाई के चिह्न का एक वर्ण उत्कीर्ण है। यह किसी विशेष मुहर की ओर संकेत कर रहा है जिसका संबंध 3 की संख्या से है। ये 3 मुख वाला जानवर देखो। 3 मुख वाला पौधा, 2 बाघों के मध्य दोनों हाथ लंबे किए खड़ा मनुष्य- यह भी 3 का संकेत है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त विश्वप्रसिद्ध कांसे की नर्तकी के गले में तिमणिया माला भी किसी 3 की ओर संकेत कर रही। यहीं से मिले योगी की शॉल पर बने त्रिफलक भी उसी ओर का इशारा हैं। ये सभी किसी रहस्यमयी मुहर की तरफ इशारा करते पहेलीनुमा संकेत हैं।'
प्रोफेसर की इतिहास संबंधी भारी-भरकम बातें शायद निशांत के ऊपर से निकल रही थीं। पास में बैठा कुत्ता भी उठकर बाहर की ओर चला गया। शायद वो भी बोर हो रहा था।
'तो आखिर वो रहस्यमयी मुहर कौन-सी है? जिस तरफ ये संकेत हैं।' निशांत ने कहा।
'वो रहस्यमयी मुहर यहां से मिली पशुपति शिव की मुहर है।' प्रोफसर आगे भी कुछ बोलते इतने में निशांत उछला।
'क्या बात करते हो? वो पशुपति वाली मुहर कैसे हो सकती? तुम ऐसा कैसे कह सकते? और उसमें 3-3 के ऐसे क्या संकेत मिले?' निशांत ने शंका जाहिर की।
प्रोफेसर आपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले- 'इस मुहर को ध्यान से देखो। इसमें 3-3 के समूह में कुल 6 अक्षर, 3-3 के समूह में 6 जानवर और इन सबके मध्य 3 सींगधारी एक व्यक्ति तपस्यारत है, जिसे ही इतिहासकार जॉन मार्शल ने 'आद्य शिव' की संज्ञा दी थी। निशांत पर प्रोफेसर की बातों का प्रभाव जमता जा रहा था। वह उत्सुकता से सुनता जा रहा था।
प्रोफेसर- 'इससे यह तो साबित हो गया कि रहस्यमयी मुहर यही है किंतु मेरे सामने बड़ी चुनौती यह थी कि आखिर इस मुहर पर लिखा क्या है? मोहनजोदड़ो नगर से मिली इस मुहर के ऊपर कुल 6 अक्षर लिखे हैं जिनको मैं पिछले कई महीनों से पढ़ने का प्रयास कर रहा था किंतु आज शाम को अचानक मुझे सफलता मिली। जब इनको सही-सही पढ़ पाया तो इन 6 अक्षरों का आशय इस प्रकार निकला- 'मुहर मिलेगा दीजिए रहस्य पीछे ध्यान'।
प्रोफेसर की बात पूरी हुई ही थी कि निशांत बोल उठा- 'अब इसका क्या मतलब हुआ?'
'जब मैंने इनको सार्थक क्रम में रखा तो कुछ इस प्रकार वाक्य बना- 'ध्यान दीजिए मिलेगा रहस्य मुहर पीछे।'
प्रोफेसर की पूरी बात सुन निशांत के चेहरे के हावभाव उड़-से गए थे। 21वीं शताब्दी की सबसे बड़ी खोज होने वाली थी। इस रहस्य से पर्दा उठ जाता तो हम इस सभ्यता को अच्छे से समझ पाते। संभव था इसका दार्शनिक पक्ष मिस्र, मेसोपोटामिया, रोम व यूनान की सभ्यता को भी पीछे छोड़ता। पर अब क्या हो सकता? अब कुछ नहीं हो सकता। रहस्य भी गया और मुहर भी गई। अब तो उस रहस्यात्मक गुप्त स्थान का पता भी गया।
प्रोफेसर उदास होकर धम से बैठ गए। जीवनभर हम जिस मंजिल के पीछे भागते-फिरते रहे और अंत में जब हमें ज्ञात होता कि हाथ कुछ नहीं आया तो कितनी निराशा होती है। ये केवल प्रोफेसर ही इस वक्त बेहतर समझ सकते थे। निशांत भी उदास हो गया। उसको भी इतिहास से काफी लगाव था। हम सभी को अपने इतिहास से लगाव होता है।
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। घड़ी में रात के 10 बज चुके थे। अचानक कमिश्नर साहब के मोबाइल पर घंटी बजी। उन्होंने कॉल रिसीव किया- 'सर, मैं नई दिल्ली का थाना प्रभारी दलपत सिंह बोल रहा हुं। जिस म्यूजियम में चोर घुसे थे उसकी सीसी टीवी फुटेज मिल गई। उसको देखने से स्पष्ट हुआ कि चोर किसी विशिष्ट वस्तु को ढूंढ रहे थे, जो शायद उनको नहीं मिली। वे बिना चोरी किए लौट गए। हालांकि हम उनको पहचान नहीं पाए, क्योंकि उन्होंने काले कपड़े का नकाब पहन रखा था, पर जांच जारी है।'
निशांत एकदम से उठ खड़ा हुआ।
'क्या चोर कुछ नहीं ले गए?'
'हां सर।'
'तो फिर वो मुहर... मेरी म्यूजियम प्रभारी से अभी बात कराओ।' निशांत ने फोन चालू रखा।
दलपत सिंह ने पास ही खड़े म्यूजियम प्रभारी को फोन दिया।
'यस सर, मैं म्यूजियम प्रभारी आरके त्रिपाठी बोल रहा हूं' फोन से आवाज आई।
'त्रिपाठीजी, आपके म्यूजियम के अंदर जो सिन्धु घाटी सभ्यता की मुहरें रखी गई थीं, वे अभी कहां हैं?' निशांत ने पूछा।
'सर, वे तो कल से राष्ट्रपति भवन में 3 दिन की प्रदर्शनी हेतु गई हुई हैं।' त्रिपाठी ने पूरे आत्मविश्वास से सधे एवं शांत स्वर में जवाब दिया।
'क्या...?' फोन काटते हुए निशांत उछल पड़ा। साथ में प्रोफेसर भी उत्सुकता से उठ खड़े हुए।
निशांत ने कहा- 'यार विजय, वो मुहरें तो कल प्रदर्शनी हेतु महामहिम के यहां गई हुई हैं। प्रोफेसर की जान में जान आई।
निशांत ने राष्ट्रपति भवन कार्यालय के सुरक्षा इंचार्ज को फोन लगाया- 'जय हिन्द सर... सुरक्षा प्रमुख पीके मिश्रा बोल रहा हुं' फोन से आवाज आई।
'जय हिन्द... मैं पुलिस कमिश्नर निशांत बोल रहा हुं। मिश्राजी, आपके अधीन 3 दिवसीय प्रदर्शनी हेतु दिल्ली म्यूजियम से कुछ प्राचीन मुहरें आई थीं, क्या वे सभी सुरक्षित हैं?' निशांत ने एक श्वास में पूछ लिया।
'जी सर, वे सभी सुरक्षित हैं और मैं उनके पास ही खड़ा हुं।' मिश्रा ने कहा।
'जरा देखकर बताना कि उनमें पशुपति शिव की 3 सींगों वाली मुहर है क्या? और उसके पीछे भी कुछ उत्कीर्ण है क्या?' निशांत तसल्ली करना चाह रहा था।
सिपाही ने फोन चालू रखा और इतमीनान से देखकर जवाब दिया- 'जी हां, सर मुहर सुरक्षित हैं और पीछे छोटे अक्षरों में कुछ लिखा तो है... कोई रहस्यात्मक लिपि लग रही है और नीचे एक छोटे नक्शे की तरह कुछ दिख रहा है।'
'हम अभी आएं, तब तक आप वहीं उसके पास मुस्तैद रहिएगा। जय हिन्द!'
निशांत ने मुस्कुराते हुए मिश्राजी को कहा और फोन रखकर जोर से चिल्लाने लगा- 'यार... मेरे दोस्त विजय... तुम्हारी खोज एकदम सही है... और वे मुहरें भी सुरक्षित हैं... साथ में रहस्य भी।
निशांत एवं प्रोफेसर खुशी के मारे कूद पड़े। दोनों कार की तरफ भागे...।
'जीवन में सच्चे मन से कोई चीज चाहो, फिर उस पर दृढ़ विश्वास रखो तो सफलता निश्चित ही मिलती है।