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कहानी : यू नेवर नो...

हमें फॉलो करें कहानी : यू नेवर नो...
हाथ में पेढ़े लिए मेघा दीदी के घर की सीढ़ियां चढ़ते हुए सारा अतीत अमोल के स्मृतिपटल पर तैर रहा था। दसवीं की परीक्षा के बाद वह दुर्घटना! सारा जीवन अंधकारमय हो गया था। कितने सपने देखे थे! आत्महत्या करने का मन होता था।
 
और फिर..दीदी के घर पढ़ने आना शुरू हुआ। जिंदगी ही बदल गई! दीदी ही बोलीं थीं, 'अरे! तुमने तो यह दुनिया देखी है, तुम कल्पना तो कर ही सकते हो। फिर से देख सकते हो। जो जन्मांध है, कभी ठीक नहीं हो सकते, उनके बारे में सोचो। अपने माता-पिता के बारे में सोचो। बी पॉजिटिव अमोल!
 
तुम पढ़ाई में मन लगाओ। बारहवीं की परीक्षा दो। मन में किसी भी प्रकार की नकारात्मकता मत आने दो। तुम जरूर ठीक हो जाओगे...'
 
अपने विचार चक्र से बाहर आते हुए, अपनी छड़ी से टटोलते हुए अमोल मेघा के पास आया।
 
'मेघा दीदी, लीजिए, पेढ़े खाइए।' उत्साह में साराबोर होकर अमोल बोला।
 
'क्या बात है! आज तो पेढ़े! पहले बारहवीं का परिणाम तो आने दो।'
 
'दीदी, आपने पढ़ाया है, मेरा पास होना तो तय है लेकिन, आज एक खुशखबरी है।
 
'अरे वाह...!!'
 
'दीदी, मेरी आंखों का ऑपरेशन करने वाले आई स्पेशलिस्ट भारत में आ चुके हैं। पंद्रह दिनों के बाद ऑपरेशन है। मैं फिर से यह दुनिया देखूंगा!' अमोल चहकते हुए बोल रहा था।
 
'क्या कह रहे हो!! अरे वाह!! बधाई हो अमोल। मुझे कितनी खुशी हो रही है, मैं ....कैसे...!!' मेघा का गला भर आया।
 
'थैंक्यू दीदी..! मेरी तो जीने की इच्छा ही मर चुकी थी, लेकिन आपने ही मुझे फिर जिंदगी से प्यार करना सिखाया। दीदी आपके पास आते ही पॉजिटिव वेव्स आने लगतीं हैं।
 
आप हमेशा कैसे उत्साह से भरी हुईं... आप टीचर हैं या मनोवैज्ञानिक?' अमोल अविरत बोलता चला जा रहा था।
 
'अरे बस! अब कब तक तारीफों के पुल बांधते रहोगे!' मेघा ने उसे रोकते हुए कहा।
 
'दीदी, हम जब भी मिले हैं, इस कमरे में ही मिले हैं। मैं ना..आपका हाथ थामकर ...दूर उस पहाड़ी पर जाकर..सावन की पहली बौछार में जी भर कर भीगना चाहता हूं...आप हमेशा कहतीं हैं ना, 'जस्ट ड्रीम एंड वन डे ऑल यूअर ड्रीम्स विल कम ट्रू'। 
 
दीदी ने कहा। 'अच्छा ये बताओ, ठीक होने के बाद सबसे पहले क्या करोगे? तुम्हारी 'फर्स्ट विश'?'
 
'हां। मैं तो आज भी यही कहूंगी, इंसान को कभी उम्मीद नहीं छोड़ना चाहिए। यू नेवर नो….' पास ही रखी अपनी व्हीलचेअर को देख मेघा ने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा।
 
मूल कथा और अनुवाद:
- ऋचा कर्पे

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