-बंशीलाल परमार
बड़े शौक से घर के मुख्य द्वार पर सुंदर-सा झूमर टांगा। हवा के स्पंदन से झूमर की क्रिस्टल वाली छड़ें टकराकर मधुर ध्वनियां उत्पन्न करती थीं। ये मधुर ध्वनियां मन को आल्हादित करतीं। कुछ दिनों बाद एक गौरेया ने झूमर के ऊपरी भाग की गैप में सुंदर एवं सुरक्षित-सा घोंसला बनाया।
कुछ दिनों बाद सुमधुर भौतिक ध्वनियों के साथ-साथ जैविक ध्वनियां भी निकलने लगीं अर्थात गौरेया के अंडों से बच्चे निकल आए। सूर्योदय से पूर्व ही उनकी चहचहाहट से घर गूंज जाता तथा सूर्यास्त होते ही नीरव शांति छा जाती। मेरे पौत्र-पौत्रियों को गौरेया द्वारा लाए गए भोजन को उनके बच्चों को खिलाते देख बड़ा मजा आया। इस तरह हम अपने-अपने घोंसलों में मस्त थे।
एक दिन मेरी पत्नी बड़ी उदास-उदास-सी लगी। बार-बार पूछने पर उसने बताया कि आज कुछ परिचित महिलाएं आई थीं और उन्होंने बताया कि घर के मुख्य द्वार पर झूमर वास्तुशास्त्र के हिसाब से बहुत ही शुभ है किंतु उस पर घोंसला होना वास्तुदोष में आता है और ये अनर्थकारक है। वर्तमान में वास्तु गुण-दोष की बात तो शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन, स्त्री-पुरुष सभी के अंदर बिना किसी तर्क के गहराई से प्रवेश कर जाती है। उसे बाहर निकालना बड़ा कठिन काम है।
मैंने अपनी पत्नी को समझाया कि जिस तरह हमारे लिए जो वास्तुशास्त्र है उससे कहीं अधिक विकसित पशु-पक्षियों का वास्तुशास्त्र है। प्राकृतिक प्रकोप, वर्षा, भूकम्प इत्यादि की जानकारी मनुष्य के पूर्व पशु-पक्षियों को हो जाती है। घोंसला बनाने से पूर्व संभवत: हमारे मनोभाव को वे शायद पहचान लेते हैं व समझ जाते हैं कि उन्हें हमसे कोई खतरा नहीं है। वे अपने घर के लिए दूसरों से वास्तु नहीं पूछते जबकि हम दूसरे के वास्तु से अपने घर व अपने मन को शंका-कुशंका में डाल लेते हैं।
यूं भी इन घरों को बनाने से पूर्व यहां खेत और खेतों से पूर्व वन रहे होंगे तो अतिक्रमण इन्होंने नहीं, हमने ही किया है इसलिए इनका घोंसला हमारे लिए अशुभ नहीं, बल्कि हमारा घोंसला इनके लिए 'वास्तुदोष' हो गया।