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अप्रत्याशित

लघुकथा

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कृष्ण शर्मा
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उनके संबंध में यह सर्वविदित था कि वे शालीनता, शिष्टाचार तथा कर्तव्यपरायणता जैसे गुणों की खान हैं। यही नहीं, अपने मित्रों तथा परिचितों को समय-असमय उदारतापूर्वक उधार के रूप में आर्थिक सहायता देने के लिए भी उनका बड़ा नाम था। उन दिनों मेरी गृहस्थी की गाड़ी ठीक नहीं चल रही थी, अतः खासे पुराने परिचय के आधार पर एक सुबह मैं भी उनसे उधार माँगने की गरज से जा पहुँचा।

बड़े सौहार्द से मुझे उन्होंने कमरे में बिठाया और कुछ पलों में पुनः हाजिर होने की कहकर वे शायद नहाने चले गए थे। कमरे की वस्तुओं को उचाट निगाहों से देखते हुए मैं मन ही मन अपने प्रयोजन की भूमिका तैयार करने का प्रयास कर रहा था। सहसा हवा के एक तेज झोंके से कोने में पड़े रैक से एक पुस्तक फर्श पर आ गिरी।

पुस्तक को उठाकर निकट के टेबिल पर रखते हुए मुझे ज्ञात हुआ कि यह कोई पुस्तक नहीं, बल्कि एक डायरी थी- शायद उन्हीं की। फर-फर चलती हवा में डायरी का एक पृष्ठ स्थाई तौर पर खुलकर रह गया। मेरी सरसरी निगाह उस पृष्ठ पर पड़ी तो अपनी धड़कन मुझे रुकती हुई महसूस हुई।

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उन्हीं की लिखावट में लिखा हुआ था- 'आज मित्रता तथा बंधुता जैसे शब्द सर्वथा अर्थहीन हो गए हैं, धन की आड़ तले दब गए हैं। आज न तो कृष्ण जिंदा हैं और न ही सुदामा। अधिकतर मित्र रावण और कंस हो गए हैं, अब तो 'मित्र' को एक बार रुपए उधार में दे दो और सदैव के लिए उससे अपना पिण्ड छुड़ा लो, क्योंकि मैं रुपए माँगने, नहीं जाऊँगा और वह लौटाने नहीं आएगा...'

डायरी को बंद करके मैंने पेपरवेट के नीचे दबाया और फिर धीरे से मेन गेट से बाहर निकल आया।

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