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अविश्वसनीय रिश्ते

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हमें फॉलो करें अविश्वसनीय रिश्ते
- हसन जमा
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चैनसिंह यादव। हाँ, यही नाम तो बताया था उसने। लंबा कद, सर के बाल आगे से कुछ उड़े हुए, फ्रेंचकट सफेद दाढ़ी। नजर का चश्मा, आगे के कुछ दाँत नकली, नीली शर्ट, काली पतलून और कंधे पर एक सफरी बैग। मैली-सी तहमद बिछाए रेलवे स्टेशन के करीब एक दफ्तर के बरामदे में वो लेटा हुआ था। मैं अर्से से उसे जानता था और उसकी ऊटपटाँग बातों पर कभी विश्वास नहीं करता था। जाने क्यों, मुझे उससे कुछ हमदर्दी हो गई थी।

'चैनजी, आपके सर पर यह चोट का निशान कैसा? उदास क्यों हो? क्या बेटियों से फिर कुछ खटपट हो गई?'

वो उठकर बैठ गया। देर तक मुझे घूरता रहा, फिर बोला, 'यार। घर छोड़ आया हूँ।'

'अरे, ...ब?'

'इसी दस को। होटल में खाता हूँ और रात को स्टेशन पर सोता हूँ।'

'ऐसा क्या हुआ कि अपना घर छोड़ना पड़ा? आप घर के मुखिया हो और आप ही... बच्चियाँ आपकी अपनी हैं। उन्हें समझाते क्यों नहीं?'

चैनसिंह यादव ने एक आह भरी और माथा पीट लिया। फिर बोला, 'चुड़ेलें हैं दोनों की दोनों। सुनो, मेरे हाथ-पाँव बाँधकर कमरे में बंद कर दिया था। मेरा मोबाइल भी छीन लिया। मैं रोया-चिल्लाया, लेकिन कोई पड़ोसी मेरी मदद को नहीं आया। ऐसे घर में रहकर मैं क्या करूँ ? भगवान ऐसी संतान किसी को न दे।'

मुझे उसकी बातों पर विश्वास नहीं होता था। ऐसा क्यों कर हो सकता है, कि शादी के लायक दो जवान बेटियाँ अपने रिटायर बूढ़े बाप पर इस तरह हावी हो जाएँ कि उसका जीना तक हराम कर दें

दरअसल जब से यादव की पत्नी का देहांत हुआ था, तब से उसके मुसीबतों के दिन शुरू हो गए थे। मिसेज यादव उसकी ढाल थी और घर की धुरी। यादव चूँकि रेलवे में ड्राइवर था, इसलिए अक्सर उसे घर से बाहर रहना पड़ता था। यादव की बातों से लगता था, कि वो कुछ असामान्य है

शायद इसीलिए घर में मिसेज यादव की चलती थी। यादव पत्नी पर इतना निर्भर था कि उसकी कमी पग-पग पर उसे खलने लगी। यादव का अपनी बहन के साथ किसी बात पर विवाद था। बहन अपनी भाभी से जलती थी

यादव को शक था, कि उसकी अच्छी-भली पत्नी को बहन और बहनोई ने जहर देकर मार डाला। उधर यादव की बेटियाँ यह कहती थीं कि पापा ने हमारी मम्मी को मर जाने दिया। उसका ठीक तरह इलाज नहीं करवाया। बेटियों को यह शिकायत भी थी कि उनके बाप को बेटियों की शादी की इतनी फिक्र नहीं, जितनी खुद अपनी शादी की

वे नहीं चाहती थीं कि उनका बाप बुढ़ापे में शादी करे और एक अनजान औरत आकर घर की मालकिन बन जाए। बहनों का भाई भी उनका हमख्याल था। वो कुछ दब्बू किस्म का लड़का था। कहीं छोटा-सा प्राइवेट जॉब करता था और अपनी बहनों से डरता था। उसने सपना सँजो रखा था कि बाप के बाद और बहनों की बिदाई के बाद, वही एकछत्र मालिक होगा।

यादव को वाकई एक औरत की सख्त जरूरत थी। मिसेज यादव की निर्भरता ने उसे पंगु बना दिया था। बेटियाँ सेवा-टहल से अपने हाथ खींच चुकी थीं। खाना कभी बना कर देतीं, कभी गोल कर जातीं। कहती, बाहर खा लेना, बाप के कपड़े वगैरह धोना तो छोड़िए, पानी का गिलास तक नहीं मिलता। साफ कह देतीं, हाथ-पाँव नहीं है क्या? खुद उठकर पी लो। बेटा भी ऐसा ही व्यवहार करता। अपने ही घर में यादव की हालत अनचाहे मेहमान जैसी बन गई थी। इस पर तुर्रा यह कि घर उसी की पेंशन से चलता था

मिसेज यादव की वजह से यादव को बुरी आदत पड़ गई थी। वो थका-माँदा बाहर से आए, तो उसके हाथ-पाँव दबाए जाएँ। उसकी मांसपेशियाँ इसकी आदी हो गई थीं। बेटियों ने साफ इंकार कर दिया, कि यह काम उनसे नहीं होगा।

यादव झल्लाकर कहता, 'मुझे दूसरी शादी भी नहीं करने देती हो और मेरी सेवा भी नहीं करती हो, अब मैं क्या करूँ?'

'मर जाओ।' बिना आगा-पीछा सोचे बेटियाँ कह उठतीं।

'सबसे पहले अपने बेटे की शादी करो', जब भी अंत को न पहुँचने वाली उसकी रामायण शुरू होती, मैं उसे सलाह देता, 'अच्छी बहू लाओ, ताकि वो घर संभाले। आपकी सेवा भी करे। और मुँहजोर ननदों को भी काबू में रखे।'

'करूँ क्या? मेरा बेटा अभी शादी करना नहीं चाहता। कहता है, पहले अपने पैरों पर खड़ा हो लूँ। यों भी हमारी जात-बिरदारी के लोग यहाँ कम हैं। कोई ढंग का घराना मिले, तो कहीं रिश्ता करूँ।'

वह अपनी हर बात मेरे साथ शेयर कर लेता था। उसी ने बताया था, कि एक विधवा से उसकी बात चल रही है। वो बहुत पैसा उस पर खर्च कर चुका है, पर वो उसके साथ रहने को तैयार नहीं है। वो अपनी घर-परिवार भी छोड़ना नहीं चाहती।

'और बेटियाँ नई माँ को अपने घर में देखना नहीं चाहती। क्यों?' मैं दलील पेश करता।

'राइट।' वो फौरन मेरी ताईद करता, लेकिन साथ ही यह भी कहता कि उसकी अपनी जिंदगी है। वो चाहे जिस तरह गुजारे। उसकी संतान दखल देने वाली कौन होती है।

'इसलिए कि वो अपने बाप का पहले की तरह सम्मान करना चाहती हैं। वो अपने बाप को कमजोर नहीं, मजबूत देखना चाहती हैं।' मैं कहता।

यादव मुझे कड़ी नजरों से देखता, 'तुम मेरी तरफ हो या मेरी संतानों की तरफ?'

'मैं किसी की तरफ नहीं हूँ। तार्किक तौर पर जो उचित लगता है, उसकी बात करता हूँ। मनुष्य की साइकोलॉजी की बात करता हूँ।'

'तुम्हारे तर्क मेरी समझ से परे हैं। मेरा दर्द वही समझ सकता है, जो मुझ जैसी हालत में हो।' वो आह भरकर कहता।

मैं भी पीछा छोड़ने वाला कहाँ था, 'अच्छी-भली तो है आपकी हालत। अच्छी पेंशन मिलती है। जमा पूँजी का ब्याज और रेलवे का फ्री पास। खूब घूमो, फिरो, ऐश करो और क्या?'

'छोड़ो-छोड़ो, तुम मेरे बच्चों की जबान बोल रहे हो। शादी तो मैं जरूर करँगा। मैं यूँ घुट-घुट के नहीं जी सकता।' बड़ी तीखी नजरों से मुझे देखता हुआ वो उठकर चल देता, जैसे अपने पक्ष की बातें मुझसे सुनने के लिए ही वो अब तक मुझे बर्दाश्त कर रहा था।

इस बार उसने जो घटना सुनाई, उसने वाकई मुझे चिंतित कर दिया। मैंने कहा, 'यादव साहब, इट इज टू मच। लगता है, आपने अपनी बेटियों को अच्छे संस्कार नहीं दिए। ऐसी भी बेटियाँ होती होंगी, यह मेरी कल्पना से परे है। अगर आपको एतराज न हो, तो मैं आपकी बेटियों से मिलना चाहता हूँ।'

'जरूर मिलो, अगर जलील होने का इतना ही तुम्हे शौक है तो।' उसने मुँह बनाया। मेरी बेवकूफी पर या बेटियों द्वारा मेरे संभावित अपमान के विचार से।

उस रोज मैं फुर्सत में था और एक नेक काम के लिए उसके घर जाने के लिए फौरन तैयार हो गया। उसने शर्त रखी, कि वो घर के अंदर कदम नहीं रखेगा। गली के नुक्कड़ पर खड़ा मेरा इंतजार करेगा। मैं फौरन मान गया

यह एक तरह से अच्छा ही था कि मैं बाप-बेटियों का फिजूल झगड़ा देखने से बच जाऊँगा। हो सकता है, अकेले में लड़कियाँ मेरी समझाइश से सीधे रास्ते पर आ जाएँ या वस्तु-स्थिति का पता चले।


यादव की बातों से उन लड़कियों की जैसी छवि मेरे जेहन में बन चुकी थी, वे उससे उलट निकलीं। पता नहीं, यह उनका अभिनय था या स्वाभाविक तौर पर वे ऐसी ही थीं। शिष्ट और हँसमुख। न ज्यादा सुंदर, न ऐसी-वैसी। जाहिर है कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं। जब मैंने उनके पिता से अपने परिचय की बात बताई तो मुझे सम्मानपूर्वक बैठक के कमरे में ले गईं और उसी तरह मेरी आवभगत की जैसे पिता की गैर मौजूदगी में उनके किसी दोस्त की की जाती है

वे किसी बात या अपने हाव-भाव से अशिष्ट, उद्दंड या आक्रामक नहीं लग रही थीं। मैंने यादव द्वारा बताई गई तमाम बातें दोहरा दीं और बूढ़े बाप के प्रति सयानी बेटियों के क्या कर्तव्य होते हैं, यह समझाना शुरू किया ही था, कि दोनों एकाएक गंभीर हो गईं। उनमें से बड़ी वाली बोली- 'तो पापा ने आपको भी किस्सा गढ़ के सुना दिया? ऐसा कुछ भी नहीं है

हम तो खुद पापा की दिमागी हालत से परेशान हैं। समझ में नहीं आता, इन्हें कैसे समझाएँ? यह उम्र है शादी करने की? जो भी औरत किसी लालच में आएगी, उसकी जिंदगी भी बरबाद हो जाएगी। हम नहीं चाहतीं कि हमारे देखते किसी औरत की जिंदगी एक आदमी की सनक से बरबाद हो जाए।'

बड़ी वाली रुकी, तो छोटी वाली शुरू हो गई, 'आपको मालूम नहीं, पापा ने हमारी नाक में कैसा दम कर रखा है। सारा घर सर पर उठा लेते हैं। हर वक्त चीखते-चिल्लाते रहते हैं। उन पर शादी का ऐसा भूत सवार है, कि कई बार हमें जहर देकर मारने की धमकी दे चुके हैं।

हमारा भैया तो बहुत सीधा है। अगर हम सख्ती से पेश न आएँ, तो पापा हमें दर-दर का मोहताज बनाकर छोड़ दें। वे कहाँ-कहाँ जाते हैं, हमें सब मालूम है। हमारी मम्मी नहीं रहीं, इसका गम हमें पापा से ज्यादा है, पर नियति के आगे कोई क्या कर सकता है। पापा मम्मी पर इतने निर्भर थे, कि उसके अभाव में इनका दिमाग सनक गया है

हमें तो इस बात की ज्यादा चिंता है कि हमारे बाद इनका क्या हाल होगा। अब देखिए ना, बिना बात के घर छोड़कर चले गए। छः दिन हो गए। लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे हैं। हम किस-किस को समझाएँ।'

वे दोनों भी बाप की तरह बातूनी निकलीं। कहाँ तो मैं उन्हें समझाने आया था और कहाँ वे मुझे दुनिया की ऊँच-नीच समझाने लगीं। मुझे लगा कि कुछ देर और इनकी बैठक में बैठा रहा तो मेरा सर घूम जाएगा। कभी लगता, बेटियाँ सही कह रही हैं

कभी लगता, नहीं। यादव वाकई पीड़ित है। यों कोई घर नहीं छोड़ता। कभी लगता, यह पूरा घर ही असामान्य है। छोटा-सा परिवार और उसमें भी फिजूल की झिकझिक। मेरी मति मारी गई थी, कि एक घर को टूटने से बचाने के लिए चला आया। यों भी यादव से मेरा क्या सरोकार था। सिर्फ परिचय ही तो था। कभी-कभी भावुकता, संवेदनशीलता और पुण्य कमाने का लोभ मुसीबत बन जाता है।

'अच्छा। मैं तुम्हारे पापा को समझा-बुझाकर घर लाऊँगा।' मैं रुख्सत होते हुए, बल्कि उनसे निदान पाने की गरज से और क्या कहता।

'फिर आइएगा।' बेटियाँ हाथ जोड़े दरवाजे तक आई थीं। मुझे लगा, मेरी पीठ पर वे मंद-मंद मुस्करा रही हैं।

मैं जब नुक्कड़ पर पहुँचा, तो यादव चहककर बोला- 'मिल गया तुम्हें भी प्रसाद? बड़े सूरमा बनकर आए थे। भाई साहब, आप जानते नहीं हैं मेरी लाडो और गुड्डो को। अच्छे-अच्छों की यूँ छुट्टी कर दें।' उसने चुटकी बजाई।

मैं यादव को कोई जवाब दिए बगैर, अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ गया। वो सवालिया निगाह से वृत्तांत जानने के लिए मेरी तरफ देख रहा था। मैं उससे क्या कहता- कि मेरे लिए दोनों पक्ष अविश्वसनीय हैं। पता नहीं, इन रिश्तों का सच क्या है।

सच पूछिए तो मैं अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रहा था। मैं हारे हुए खिलाड़ी की तरह उदासमना अपने घर की तरफ चल दिया। गाड़ी स्टार्ट करते वक्त, मैंने पलटकर एक नजर यादव पर डाली। उसका चेहरा सपाट था।

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