आदर्श जीवन जीने वाले मालचंदजी ने जब अपने दोनों पुत्रों की शादी बिना दहेज़ के की तो समाज में सर्वत्र उनकी प्रशंसा हुई उनके क्रांतिकारी कदम को लोगों ने एक मिसाल के तौर पर देखा।लड़कियाँ उन अत्यंत संपन्न परिवारों से थी जिनके लिए दहेज़ देना कोई मुश्किल काम नहीं था। लेकिन मालचंद जी ने शगुन के तौर पर एक रुपया और नारियल ही लिया।कुछ समय बाद जब उन्हें अपनी बेटियों के लिए वर की तलाश थी तो उसी प्रशंसा करने वाले समाज में कोई भी बिना दहेज़ शादी के लिए
तैयार नहीं था। बेटों की शादी के समय जो समाज उन्हें 'क्रांतिकारी समाज सुधारक' बता रहा था आज वही समाज जैसे गूँगा बहरा हो गया। उसे सुनाई देती है तो सिर्फ सिक्के की खनक।
अंततोगत्वा एक मजबूर बाप ने अपने कंधे से आदर्शों की अर्थी उतारी और बेटी की डोली को कंधा देने के लिए अपने को तैयार कर लिया।
साभार : संबोधन