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इच्छा मृत्यु?

लघुकथा

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बृजेश कानूनगो
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कहने को भले ही वह दफ्तरी था, लेकिन प्रबंधक से लेकर भृत्य तक उसका सम्मान उसी तरह करते थे, जैसे वे परिवार का कोई बुजुर्ग रहा हो।

'कितने बच्चे हैं, छोटेलाल तुम्हारे? मैंने एक बार यूँ ही पूछ लिया था।' एक बेटा है, बाबूजी- श्याम, पैंतीस का हो गया है।' छोटेलाल ने बताया था।

'श्याम तो कहीं नौकरी करता होगा।' मैंने पूछा था।

'एम.ए. किया है बाबूजी, मगर नौकरी नहीं मिली अब तक। कहीं काम-धंधे पर लग जाए, यही इच्छा रह गई है अब तो...।' कहते-कहते छोटेलाल के चेहरे पर चिंताओं की रेखाएँ उभर आई थीं। जैसे-जैसे छोटेलाल की सेवानिवृत्ति का समय निकट आता जा रहा था, वह उदास रहने लगा था। शारीरिक रूप से भी वह कमजोर नजर आने लगा था।

मुझे मालूम था, उसे कौनसी चिंता अंदर ही अंदर से घोल रही थी। फिर भी उसकी मौत की खबर अप्रत्याशित थी। वह कमजोर जरूर हो गया था, लेकिन इतनी जल्दी कम से कम अपनी नौकरी के दिन तो पूरे कर ही सकता था।

छोटेलाल की मृत्यु के पश्चात नए दफ्तरी ने कार्यभार संभाला। नए दफ्तरी ने जब छोटेलाल की टेबल की दराज की सफाई की तो उसमें से कुछ कागज निकले। एक कागज की कुछ पंक्तियों को रेखांकित किया गया था, उत्सुकतावश मैंने उसे ध्यान से देखा। वह एक विभागीय परिपत्र था, जिसमें लिखा था- 'किसी कर्मचारी का अपने सेवाकाल में निधन हो जाने पर उसके परिवार के योग्य सदस्य को विभाग में नौकरी पर रखा जा सकता है।'

मेरी आँखें सजल हो आई। मुझे लगा परिपत्र की पंक्तियाँ पिघलकर पुत्र के लिए ऐसी पगडंडी बना रही हों जो पिता की अंतिम इच्छा तक पहुँचती है।

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