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कच्‍ची उम्र के सपने कितने अपने

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- मंगला रामचंद्र

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सपना शब्‍द कहते-सुनते ही इंसान एक काल्‍पनिक दुनिया में झाँकने लगता है। कहते हैं, नींद में जो सपने देखे जाते हैं, वो रंगीन नहीं होते, पर हम जो सपना पालते हैं या जागने में देखते हैं, वो हमेशा सतरंगी और इंद्रधनुषी आभा लिए ही होता है।

फिर किशोर अवस्‍था के सपनों का तो क्‍या कहना। किशोर अवस्‍था यानी नादान, अल्‍हड़ उम्र का दौर, जिज्ञासा और ढे़रों सवालों का मन में उमड़ने का दौर, बहुत कुछ पा लेने, कर गुजरने का महज पाला हुआ सपना। पाला हुआ, इसलिए कि हकीकत से सामना हो जाने पर सपना, सपना नहीं रह पाता।

इस उम्र में लड़के-लड़की दोनों ही सपने पालने का शौक रखते हैं। दिवास्‍वप्‍न देखना इस उम्र में कुछ अधिक ही होता है। लड़कों का तो बाहरी दुनिया से वास्‍ता अधिक पड़ता है। इसलिए ये हकीकत से जल्‍दी रूबरू हो जाते हैं, पर लड़कियाँ स्‍वभाव से अधिक भावुक होती हैं और उन्‍हें बाहर निकलने का, एक्‍सपोजर का मौका भी अपेक्षाकृत कम ही मिलता है। ऐसे में सपना पूरा कर लेने का भ्रम पाल लेती हैं। सपना देखना और देखकर खुश होने में न पैसा खर्च होता है और न ही कोई दूसरा जान पाता है। सो इन अल्‍हड़ किशोरियों के सपने बेलगाम घोड़ों की तरह दौड़ पड़ते हैं।
  सपना शब्‍द कहते-सुनते ही इंसान एक काल्‍पनिक दुनिया में झाँकने लगता है। कहते हैं, नींद में जो सपने देखे जाते हैं, वो रंगीन नहीं होते, पर हम जो सपना पालते हैं या जागने में देखते हैं, वो हमेशा सतरंगी और इंद्रधनुषी आभा लिए ही होता है।      


सपने देखना बुरी बात नहीं है, बल्‍कि हर इंसान चाहे, वो किसी भी उम्र का हो, का एक सपना होना चाहिए। जीवन में जीने की ललक ही नहीं होगी, तो जीवन में कुछ कर ही नहीं सकता। जीवन की इसी ललक के लिए या जीवन को सपाट और अर्थहीन होने से बचाने के लिए ये सपने मदद करते हैं। पर अल्‍हड़ और कच्‍ची उम्र की लड़कियों के सपने तो उन्हें ‘ऑक्‍सीज’ यानी जीवन वायु प्रदान करते हैं।

वैसे ही ये सपने हमेशा कुछ पाने और खुशी, उल्‍लास के कारक ही होते हैं। कोई भी दु:ख का या खोने का सपना नहीं देखता, फिर इस उम्र में तो ये बालाएँ अपनी सारी इच्‍छाओं की पूर्ति इन सपनों में करने लगती हैं। किसी गायिका को देख-सुनकर खुद गायिका होने का सपना पाल लेना, या अपनी कोई प्रिय अध्‍यापिका जैसा अपने को महसूस करना, फिल्‍मों की नायिका की जगह अपने आपको प्रतिस्‍थापित कर खुद को महान मानना तो इस उम्र की खास दशा है। यानी अपने सामने किसी भी सफल व्‍यक्‍ति को पाकर उसकी जगह अपने आपको रखकर कल्‍पना में खुश होना। ऐसे में सपनों से समय बर्बादी अवश्‍य होती है, पर अधिकांश उदाहरणों में गंभीर हानि कम ही होती है।

वरन एक आदर्श को सामने रखने से कई बार इन्‍हें आगे चलकर राह चुनने में मदद मिलती है। बशर्ते उसमें अपने आदर्श व्‍यक्‍ति की तरह प्रतिभा छिपी हो और वो उस प्रतिभा को विकसित करने की ओर ध्‍यान दे। ऐसे समय में लड़की को कोई सही राह दिखाने वाले के अलावा उत्‍साहवर्द्धन करने वाला और अपनी प्रतिभा को सही पहचान करने में मदद करने वाला भी होना चाहिए। क्‍योंकि यही वो नाजुक दौर है, जब लड़की को झूठी प्रशंसा और रंगीन जीवन का आईना दिखाकर भूल-भूलैया में फँसाया जा सकता है।

इस दौर में किशोरियाँ सामने वाले से बहुत जल्‍द प्रभावित हो जाती हैं। खासकर विपरीत सेक्‍स से, चाहे वो व्‍यक्ति किसी भी उम्र का क्‍यों न हो, सामने वाले की किसी एक अदा पर इस तरह मर मिटेंगी कि उसके बाकी गुण-अवगुण कुछ भी उसे नजर नहीं आएँगे। यही समय उसकी परीक्षा की घड़ी होती है, जब कोई उसे बहला-फुसलाकर गलत राह पर ले जा सकता है। माँ, बड़ी बहन या भाभी की बात या समझाइश उसे कुनैन की तरह कड़वी लगेगी। उसका भला चाहने वालों को वो दुश्‍मन समझेगी।

यह समय इन अल्‍हड़ बालाओं की माँ के लिए कठिन दौर और अग्‍नि परीक्षा से कम नहीं होता। अगर माँ सख्‍ती करती है, तो इन लड़कियों का गलत कदम उठाने का डर रहता है। उस पर चौकसी या निगरानी भी इस तरह करनी पड़ती है कि वो भाँप न जाए कि उस पर नजर रखी जा रही है।

दूसरी तरफ इनका दिल न टूटे, इसका भी ख्‍याल रखना पड़ता है, क्‍योंकि इस उम्र में हर तरह की भावनाओं का बड़ी जल्‍दी प्रभाव होता है। जिस तरह वे रंगीन दुनिया और खुशनुमा सपने में एकदम खोकर एकसार हो जाती हैं, उस तरह उनके दिल को कब चोट पहुँच जाए, कहा नहीं जा सकता। ‘इंपल्‍सिव नेच’ इस उम्र की खासियत होती है, जिसमें परिपक्‍वता और गंभीर सोच की कमी रहती है। इसलिए इस उम्र की लड़कियाँ जरा-जरा सी बात पर आत्‍महत्‍या जैसे कदम उठा लेती हैं

कक्षा में फेल होना, अपनी पसंद की फिल्‍म देखने को न मिलना, अपनी खास सहेली के दु:ख से द्रवित होना, किसी बच्‍चे के दु:ख या बीमारी से या किसी पशु-पक्षी के दु:ख से कातर होना और इन हादसों को जीवन-मृत्‍यु का आधार बनाकर भीषण कृत्‍य कर, इस मनोस्‍थिति में इन्‍हें कुछ समझाना या रोकना बहुत कठिन होता है। इससे निपटने के लिए बहुत सूझबूझ से काम लेना पड़ता है, जरा-सी भी चूक से इनके भटकने का अंदेशा बढ़ ही जाता है।

वैसे तो उम्र के तेरहवें सोपान से उन्‍नीसवें तक किशोर वय माना जाता रहा है और माना जाता है कि महानगरों की किशोरियाँ शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से ज्‍यादा परिपक्‍व हो जाती हैं। बाहरी दुनिया से जल्‍दी, लगातार और अधिक संपर्क होने से यथार्थ के धरातल का आभास शीघ्र हो जाता है। वैसे अठारह वर्ष में उसे वयस्‍क मान लिया जाता है, तो एकदम नासमझ तो होने का सवाल ही नहीं है। एक तरह से जीवन की जटिलता ने इन किशोरियों को समय से पहले वयस्‍क, परिपक्‍व और समझदार बना दिया है।

अन्‍य नगरों और प्रदेशों की राजधानी व प्रदेश के नगरों में भी पत्रिकाओं, फिल्‍मों ने इन किशोरियों को पहले की तरह एकदम भोली और नासमझ तो रहने नहीं दिया, पर इन पर अनुशासन और मर्यादा की बंदिश का जोर अभी भी है। बड़ों के सामने अपनी इच्‍छा को दबाने या खुलकर न बोलने का जज्‍बा अभी जीवित है। इच्छाओं का दमन करना या बड़ों के सामने नकली आदर के रूप में अपने आपको भोला और नासमझ बताने या दिखाने का सिलसिला जब तक जारी रहेगा, तब तक इस उम्र के सपनों का सतरंगा इंद्रधनुष फीका नहीं पड़ेगा।

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