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कटोरियां

लघुकथा

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नीता श्रीवास्तव
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दोनों कॉलोनी में लगभग एक साथ ही आईं और संयोग से दोनों को एक ही ब्लॉक में बने दो क्वार्टर अलॉट हुए। दोनों हमउम्र, दोनों ही ओवरस्मार्ट और दोनों ही दिखावा पसंद भी।

दोनों में तीव्रता के साथ घनिष्ठता भी बढ़ी। बतियाना, टीवी देखने तक तो ठीक था, दोनों के बीच कटोरियों के आदान-प्रदान का सिलसिला भी चल पड़ा।

एक कटोरी चीनी, एक कटोरी बेसन आदि का लेन-देन नित्यकर्म बन चुका था तो हफ्ते में चार दिन तो दोनों ही अपनी पाककला में निपुणता का प्रमाण भी दे ही देती थीं।

कभी विशिष्ट सब्जी, रायता, पुलाव यानी कटोरियां पड़ोस में आती-जाती रहीं और इतना ज्यादा आवागमन होने लगा कि धीरे-धीरे याद दिलाना पड़ता कि 'मेरी एक कटोरी आपके यहां है।'

अब खाली कटोरी भी तो नहीं लौटाई जाती है! बेमन से कटोरी लौटाने के लिहाज से कोई खास व्यंजन पकाना ही पड़ता।

दोनों कब तक झेलतीं? एक ने बचने का रास्ता निकाला। पड़ोस वाली जो कुछ लाती --- तुरंत उसी कटोरी के व्यंजन पर धनिए, नारियल, नीबू, प्याज या मेवे आदि से गार्निश कर पहुंच जाती - 'अरे-- संयोग देखिए मैंने भी आज वही बनाया, जो आपने बनाया। इसका स्वाद भी चखकर बताना--- कैसा बना है?'

कुछ दिनों बाद दोनों ही एक-दूसरे को बनाने लगीं और अंततः वही हुआ। अब दोनों पड़ोसिनों के मध्य न कटोरियां प्रचलित हैं और न ही आपसी संवाद।

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