कमलेश भारतीय की दो लघु कथाएँ
कारोबार
हम दोनों एक ही जगह पहुँचे थे। इसके बावजूद हमारे रास्ते अलग-अलग थे। सभागार में हमें साथ-साथ बिठाया गया। वह मेरे से आँख नहीं मिला रहा था। हम एक ही गाँव के थे लेकिन एक जैसे नहीं थे। मुझे कलम के क्षेत्र में पहचान मिली थी, उसे कर्म के क्षेत्र में। मैं गाँव की पगडंडी पर चलकर पहुँचा था और वह एक प्रकार से हवा में अपनी चमचमाती गाड़ी में। गाँव में उसका पिता हमारी हवेली में रोज दूध लेने आता था क्योंकि वह शहर ले जाकर दूध बेचता था। बेटे बड़े हुए तो हलके के नेता के साथ हो लिए। देखते-देखते ईंट-भट्ठे का कारोबार शुरू हुआ। गाँव का कच्चा मकान आलीशान कोठी में बदल गया। कोठी के आगे कार खड़ी हो गई। पिता ने दूध बेचने का कारोबार नहीं छोड़ा। बेटों को गाँव में ताने-उलाहने मिलने लगे। बेटों को बाप के दूध बेचने के कारोबार से शर्म आने लगी। समझाने की कोशिशें बेकार रहीं। बाप यही कहता कि मैं तुम्हारा बाप हूँ। मैंने तुम लोगों को इसी कारोबार से पाल-पोस कर बड़ा किया है। अब शर्म कैसी?आखिर बाप-बेटों में जमकर कहा-सुनी हो गई। बाप ने बेटे को सारे गाँव के सामने कह दिया - मेरा सफेद और शुद्ध कारोबार है। तुम्हारे काले कारोबार से मेरी ईमानदारी की रोटी भली। तुम जो चाहे करो, मैं तुम्हें रोकता नहीं, फिर तुम मुझे कैसे रोक रहे हो?बेटा चुपचाप कोठी में लौट गया था। आज सभागार में मुझे देखकर वह आँखे चुरा रहा है।श्रद्धांजलि
बच्चे सहमे से देख रहे थे और समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, क्या न करें।
उनकी परियों की कहानी सुनाने वाली दादी-अम्मा दम तोड़ चुकी थी। दादी-अम्मा की दवा-दारू के वक्त जो मुँह नहीं दिखाते थे, वही मकान के बँटवारे, पीतल के बर्तनों, अधटूटी चारपाइयों व जंग खाए लोहे के ट्रंकों की छीना-झपटी के लिए सारे बहू-बेटे आपाधापी में मौत की भनक लगते ही पहुँच गए।
उन सबको जैसे इसी वक्त का इंतजार था। बँटवारे को लेकर इतने व्यस्त थे कि माँ के मरने पर रोने की फुरसत नहीं थी। वह काम उन्होंने सुबह पर टाल दिया था। ताकि मोतियों जैसे बहुमूल्य आंसूओं को गली-मोहल्ले वाले देख सकें और उनके गम का अंदाज लगा सकें।
बच्चे निरूपाय से इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने एक-दूसरे से पूछा, 'किसी के मरने पर तुम्हें रोना-पीटना आता है?' और जवाब में एक-दूसरे के गले मिलकर बड़ों की तरह रोने लगे और बड़े उन्हें नासमझ बच्चों की तरह घूरने लगे।
साभार : अक्षरम् संगोष्ठी