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कुंदनसिंह परिहार
'अम्मा के पाँव घर में तो टिकते नहीं। कहीं न कहीं का चक्कर चलता रहता है। शाम को दो घंटे के लिए मंदिर जाना ही है। कहती हैं, न जाएँ तो मन बेचैन रहता है। इसके अलावा मुहल्ला पड़ोस में कहीं भी जाकर बैठ जाती हैं। पता नहीं कहाँ-कहाँ की बातें करती हैं। बेटे अब बाल-बच्चे वाले हो गए।
बड़ा बेटा देवनाथ समझता है, 'अम्मा' तुम अब भी वही पुराना ढर्रा चला रही हो। आजकल कोई किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं करता। तुम जाकर बैठ जाती हो सो लिहाज में भले ही कुछ न बोलें। देखती नहीं हो कि अब तो पड़ोसी से फोन पर बात होती है। अटक-बूझ में कोई खड़ा नहीं होता। पहले शाम को सामने वाली पुलिया पर लोग गप लगाने को बैठ जाते थे। अब कोई दिखाई देता है? दिनदहाड़े घर के ताले टूट जाते हैं और पड़ोसी चुपचाप खिड़की से झाँकते रहते हैं। यही हाल रहा तो एक दिन मिट्टी उठाने के लिए चार आदमी जुटाना भी मुश्किल हो जाएगा।
अम्मा जवाब देती हैं, 'भैया, ठीक कहते हो। आदमी अब घोंघे की तरह अपनी खोल में घुसता जा रहा है, लेकिन हम पुराने ढंग के लोग हैं। आदमी की सूरत देखे बिना कल नहीं पड़ती। आदमी आदमी से बात नहीं करेगा तो क्या पुतलों से बात करेगा? तुम लोग तो टीवी से चिपके सो चिपके। बच्चों का भी यही हाल है। खेलना-कूदना सब छूट गया। आगे चलकर दस बीमारी घेरेंगी तब समझ में आएगा।'
मुहल्ले में दो परिवार हरसूद से उजड़कर आए हैं। हरसूद, यानी मध्यप्रदेश का वह कस्बा जो इंदिरा सागर बाँध के निर्माण की प्रक्रिया में जीवन के सारे स्पन्दनों के साथ जलमग्न हो गया। अम्मा उन परिवारों के पास आती-जाती रहती हैं। लौटकर भीगी आवाज में बताती हैं, 'बेचारेबहुत दुःखी रहते हैं। बच्चे बिलकुल बुझे-बुझे रहते हैं। बड़े भी हमेशा सोच में डूबे रहते हैं। पैसा तो मिला है, लेकिन पैसे का क्या करें? पैसा किस-किस कमी को पूरा करेगा? घर-जमीन, रिश्ते-पड़ोस सब खतम हो गया। सैकड़ों सालों का अपना देश छूटा तो छूटा, आँख से देखने को भी नहीं बचा। आदमी कोई जानवर तो है नहीं कि कभी भी किसी तरफ हाँक दिया। उसकी जड़ें और फूल-पत्तियाँ होती हैं। जड़ों के बिना आदमी क्या है?'
उनके बेटे कहते हैं, 'अम्मा, तुम पुराने खयाल की हो। कुछ हासिल करने के लिए कुछ खोना पड़ता है। बाँध पूरा हो जाएगा तो ज्यादा बिजली मिलेगी। देश को आगे बढ़ाना है तो कुछ दिक्कतें बर्दाश्त करनी पड़ेंगी।'
अम्मा पलटकर जवाब देती हैं, 'भैया, ये सब बातें उसे अच्छी लगती हैं जो खुद नहीं भोगता। जाकर उन बच्चों के चेहरे देखो। उन बेचारों की तो जिंदगी ही बदल गई। यहाँ परदेश में पड़े हैं।'
अम्मा के दो बेटे और एक बेटी है। पति हरिनाथ बाबू आठ-दस साल पहले स्वर्ग सिधार गए। उन्हीं के बनाए पुराने मकान में अम्मा दोनों बेटों, बहुओं और पोतों-पोतियों के साथ रहती हैं।
दरअसल अब उनके बेटों की चिंता दूसरी है। जब पिताजी ने मकान बनाया था, तब इधर आबादी कम थी। जमीन आज के हिसाब से कौड़ियों के भाव मिल गई थी। एक तरह से उस वक्त इधर रहना हिम्मत का काम समझा जाता था, वजह यह कि मकान इक्के-दुक्के और दूर-दूर थे। फिर जैसा कि हमेशा होता है, शहर ने पसरना शुरू कर दिया। यह क्षेत्र जो मुख्य शहर के बाहर माना जाता था, शहर की जद में आ गया और धीरे-धीरे सारा क्षेत्र गुलजार हो गया। चमकदार दुकानें खुल गईं और संपन्नाता की घोषणा करती आधुनिक, विशाल इमारतें सब तरफ उग आईं। उनकी जमीन सोना हो गई। यह ज्ञात होने पर कई बार देवनाथ ने कहा, 'पिताजी की नौकरी मामूली थी, लेकिन यह मकान बनाकर वे बड़ा पुरसारथ का काम कर गए। अब तो जमीन ही तीस लाख से ऊपर की हो गई।'
देवनाथ और श्रीनाथ को बाजार का गणित समझने में कुछ समय तो लगा, लेकिन जब उनकी समझ में आया, तो वह शिद्दत से उनके जेहन पर सवार हो गया। बाजार अब दिन-रात उन्हें सुनहरे सपने दिखाने लगा था। वे अपने आसपास देख रहे थे कि पुराने मकानों के वासी एकाएक गायब हो जाते थे। फिर मजदूरों का दल आकर उस मकान को मलबे के ढेर में तब्दील कर देता था। फिर कुछ दिन बाद पुराने मकान की समाधि पर कई फ्लैट्स वाली शानदार इमारत झूमने लगती थी।
दोनों भाइयों को अपने जमीन-मकान के मोल का बोध तब होता था, जब वे किसी नए आदमी के पूछने पर बताते थे कि वे प्रीतिनगर में रहते हैं। यह सुनकर आदमी आश्चर्य और ईर्ष्या से कहता था, 'खुशकिस्मत हो। वह तो शहर का महँगा एरिया है।'
दोनों भाइयों को लग रहा था कि उनके पास मूल्यवान संपत्ति है, लेकिन उस कीमती जायदाद पर बैठे रहने से क्या फायदा? उस संपत्ति को बाजार में भुनाया जा सके, तभी कुछ हासिल हो सकता है।
देवनाथ ने एक दिन अपने मन की बात श्रीनाथ को बताई थी। एक तरह से उन्होंने श्रीनाथ के मन का चोर पकड़ लिया था, क्योंकि उनके मन में भी यही बात बार-बार डूब-उतरा रही थी। भाइयों में यह सहमति बन गई कि अच्छा खरीददार देखकर मकान को बेच दिया जाए। और फिर दोनों भाई कहीं सस्ते डुपलेक्स लेकर रहें। बाकी जो पैसा बचेगा उससे गाड़ी-मोटर खरीदी जा सकेगी या बैंक में रखकर ब्याज कमाया जा सकेगा।
भाइयों ने अम्मा को तो यह बात नहीं बताई थी, लेकिन अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चों के सामने बात छेड़ी जा चुकी थी। दोनों परिवार भीतर-भीतर अपनी कल्पनाओं में मगन थे। दोनों परिवारों के बच्चों का यह दृढ़ मत था, कि मकान बिकते ही दोनों को कार खरीद लेना चाहिए। वजह यह कि उनके ज्यादातर दोस्तों के पास कार थी और वे उनके सामने हीनता महसूस करते थे। यद्यपि दोनों ही परिवारों को कार की कोई खास जरूरत नहीं थी, फिर भी बच्चों और उनकी माताओं का खयाल था कि दरवाजे पर कार का खड़े रहना ही मायने रखता है।
बड़े भाई की सहमति से अब श्रीनाथ ने बिल्डरों से संपर्क साधना शुरू कर दिया था। बिल्डर उनके घर पर दस्तक देने लगे थे। जल्दी ही एक बिल्डर ने श्रीनाथ को बीस हजार रुपए पकड़ा दिए, कहा, 'रखे रहो। सौदा जब होगा तब होगा।' इसके बाद उसका सहायक उनके मकान के रोज चक्कर काटने लगा। उसे भय था कि कोई दूसरा बिल्डर इस फायदे के सौदे को झटक न ले।
अभी एक बाधा, बहन रेखा को संतुष्ट करने की थी। श्रीनाथ का मत था कि उसे कुछ देने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि पिताजी अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसकी शादी में व्यय कर चुके थे। लेकिन देवनाथ कायदे-कानून से वाकिफ थे। उन्होंने भाई को समझाया कि पैतृक संपत्ति में बहन का हक बनता है। नहीं मानेगी तो कुछ दे-दिलाकर उसका मुँह बंद करना पड़ेगा।
बात लाइन पर आ चुकी थी। अब समस्या अम्मा को समझाने की थी, जो एक मुश्किल काम था। यह जिम्मेदारी देवनाथ ने ली और खाँस-खखारकर बात बहुत मुलायमियत से अम्मा के सामने रखी। अम्मा ने सुना तो वे स्तब्ध रह गईं। आँसू आँखों में आए और फिर गालों की झुर्रियों परबह गए। उन्होंने याद करना शुरू किया कि कैसे बड़ी मुश्किलों से टुकड़ों-टुकड़ों में वह घर बना था। कई बार मकान पूरा करने के लिए जरूरी व्ययों पर लगाम और पेट में गाँठ लगानी पड़ी थी। उन्होंने उन सब घटनाओं की याद की जो ईंट-पत्थर के घर में घटी थी और उनफूल-पौधों का जिक्र किया, जो उन्होंने साल दर साल उस घर में सजाए और सँवारे थे। फिर उन्होंने कहा कि उनके सब बच्चों के और उनके बच्चों के नरे उसी घर में गड़े थे।
देवनाथ कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, 'अम्मा अफसोस मत करो। यह सब तो जिन्दगी में चलता है। ईंट-पत्थर के घर से क्या मोह रखना। हम उन हरसूद वालों से तो बेहतर ही हैं, जिनका देस ही छूट गया। हम कम से कम अपने शहर में तो रहेंगे।'
अम्मा, रो-धोकर चुप हो गईं। वे जानती थीं कि होना वही है, जो बेटे और बहुएँ चाहेंगी। उनकी अपनी चाहत का कोई महत्व नहीं था, क्योंकि उनकी जिन्दगी बेटों के सहारे ही थी।
कुछ ही दिनों बाद स्वर्गीय हरिनाथ का बड़ी हसरत और मेहनत से बनाया गया वह पुराना मकान, मजदूरों की एक टोली ने जमींदोज कर दिया। फिर उस जगह पर एक खूबसूरत फायदेमंद इमारत बनाने के ताने-बाने बुने जाने लगे। स्वर्गीय हरिनाथ की पत्नी और उनके दोनों बेटों के परिवार कुछ वक्त के लिए, उस विशाल शहर में गुमनामी के अँधेरे में खो गए।