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कुहनी की चोट

लघुकथा

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हमें फॉलो करें कुहनी की चोट
उर्मि कृष्ण
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वह फटी चप्पलों और अपने मैले कपड़ों के साथ बहन की विशाल कोठी में घुसा। सहमा-सहमा सा चारों ओर देख रहा था, सब कुछ सपने-सा लग रहा था। पक्के चिकने संगमरमरी फर्श पर फटी चप्पलों में फँसे कीचड़ से चिन्ह बनते जा रहे थे। चारों और दौड़-धूप, गहमा-गहमील कोई उसे देख तक नहीं रहा। डरते-डरते उसने बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कीं। एक सफेद कपड़े पहने आदमी ने पूछा - 'किससे मिलना है?'

' दीदी... गी...ता जीजी से।'

नौकर ने थोड़ी पूछताछ के बाद उस फटेहाल व्यक्ति को मा‍लकिन के पास ले जाकर छोड़ दिया। बहन चहक उठी। बच्चों से तो मामा का परिचय कराया तो वे नमस्ते करने की बजाय आँखें फाड़कर उसे देखते रह गए।

बहन के वैभव और व्यस्तता को देखकर उसे सूझ नहीं रहा था ‍कि क्या बात करे? क्या पूछे? इतने बड़े व्यापारी जीजा के यहाँ आने का साहस वह आज तक नहीं जुटा पाया था।

सारा दिन बीत जाने पर जब कुछ क्षण बहन उसके पास बैठी तो बड़ा साहस जुटा उसने पूछ ही लिया - 'जीजी, क्या तुम्हें कभी मेरी याद आती है?'

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भाई के इस अप्रत्याशित प्रश्न से बहन भीतर तक झनझना उठी, मानो उसकी कुहनी अभी-अभी किसी कठोर वस्तु से टकरा गई हो। आँखें डबडबा गईं, भर्राए गले से बोली - 'मुझे तेरी याद ऐसी ही आती है भैया, जैसे कुहनी की चोट।'

भाई ने देखा इतनी सारी चकाचौंध भरी परतों के नीचे बहन पूरी तरह वैसी की वैसी 'जीजी' है।

बहन के शब्द भाई के कलेजे में उतर गए। धनवान बहन के लिए पाली हुई अनेक धारणाएँ पिघलकर आँखों की राह बनने को आतुर हो गईं।

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