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कोंपल

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-सुषमा दुब
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वहाँ कभी घने-हरे पेड़ हुआ करते थे। धीरे-धीरे आबादी बढ़ी और हरे-भरे पेड़ मनुष्यों की आवश्यकताओं की भेंट चढ़ने लगे। अब वहाँ गिनती के पेड़ बचे थे जो घरों की शोभा बढ़ाने के साथ-साथ स्वच्छ हवा, छाँव व ठंडक भी दे रहे थे। लेकिन कुछ वर्षों बाद विकास के नाम पर सड़कें बनीं और हरे-भरे पेड़ों को काट दिया गया। अब उस इलाके में सीमेंट के जंगलों और पेड़ों के ठूँठ के सिवाय कुछ नजर नहीं आता

कुछ दिनों के पश्चात बरसात हुई और एक पेड़ के ठूँठ से नन्ही कोंपल फूटकर बाहर निकली। सुबह जब भानु रश्मियाँ उस कोंपल पर पड़ीं तब उस नन्ही कोपल ने आँख खोलकर आसपास का नजारा देखा तो पाया कि उसका पूरा खानदान नष्ट हो चुका है। उसकी रुलाई फूट पड़ी

थोड़ी देर बाद उसने सोचा कि वह किसी से नहीं डरेगी। अपना अस्तित्व स्थापित करके ही मानेगी और दुनिया को फिर से स्वच्छ हवा और ठंडी छाँव देगी, किंतु दूसरे ही क्षण उसने सोचा- मैं किसके लिए इतने कष्ट सहूँ? उसी निष्ठुर और निर्दयी मानव के लिए जिसने मुझे समूल नष्ट करने की ठान ली है, अपना भला-बुरा सोचे बिना ही। ऐसा विचार कर वह कोंपल वहीं मुरझा गई। इस दुनिया को अपने हाल पर छोड़कर।

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