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खेल वाली माँ

लघुकथा

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डॉ. सतीश दुब
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रक्षाबंधन पर्व पर आए मोना, सोनिया, चिंटू, मुन्ना और कीर्ति को परंपरागत घर-घर खेलने की योजना बनाते सुन अच्छा लग रहा था। मुन्ना को पापा बनाना इस शर्त पर स्वीकार कर लिया गया था कि जो माँ बनेगी, उसे वह डाँटेगा नहीं और उसकी बात को मानेगा। लेकिन जब माँ के लिए मोना का नाम कीर्ति ने सुझाया तो छोटे भाई चिंटू ने यह कहकर विरोध का स्टम्प गाड़ दिया कि यदि मोना को माँ बनाया गया तो वह नहीं खेलेगा। वह नहीं चाहता था कि उससे झगड़ा करने वाली दीदी को माँ जैसा बड़ा दर्जा मिले। छोटे भाई द्वारा सबके बीच विरोध करने का मतलब अपमान करना समझ मोना झुँझला उठी-'भाड़ में जा नी खेले तो...।'

मुन्ना के एक ओर बैठने के बाद गाँव से आई सोनिया ने मोना को फुसफुसाकर कहा- 'तेने कह दिया, भाड़ में जा। भाड़ का मतलब समझती भी है कि नहीं। भाड़, भड़भूँजे की भट्टी पर होती है। जहाँ धानी गर्म बड़े कढ़ाव में डाली गर्म रेत में सेंकी जाती है। भाड़ में जाने का मतलब होता है या तो लकड़ी बन भट्टी में जलना या गर्म कढ़ाव की रेत में सिंकना...'।

'अरे बाप रे यह तो मुझे मालूम ही नहीं था...।' मोना ने प्रायश्चित करते हुए गाली वापस लेने के लिए भगवान से प्रार्थना कर मुन्ना से कहा- ' मुन्ना नी खेलना हो तो मत खेल पर भाड़ में मत जा...।' दीदी को अपनी बात के आगे झुकते देख मुन्ना और अकड़कर बोला- 'न भाड़ में जाऊँगा, न बाहर, यही बैठूँगा, बोल क्या कर लेगी तू...।' नारी के कोमल दिल वाली मोना प्रत्युत्तर में क्या कर और कह सकती थी। सब कुछ सहने के लिए उसे माँ जो बनना था।

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