हेमचंद्र जाधव
बात कुछ दिनों पहले की है। मैं अपने मित्र के साथ उसके लिए संविदा शिक्षक पात्रता परीक्षा का आवेदन फॉर्म लेने गया था। फॉर्म लेने हेतु लंबी कतार लगी थी। उसी कतार में मेरे मित्र से कुछ आगे एक सज्जन लगे थे। वेशभूषा में वे काफी गरीब मालूम होते थे। वे अपनी बिटिया (पुत्री) हेतु फॉर्म लेने आए थे। फॉर्म की कीमत विशेष वर्ग हेतु 150 रुपए थी।
जब उन सज्जन की बारी आई तो उन्होंने काउंटर पर दो पचास के नोट तथा बाकी पचास रुपए की चिल्लर देनी चाही परंतु काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी ने चिल्लर लेने से सख्त मना कर दिया। उन्होंने कहा कि चिल्लर कब तक गिनते रहेंगे। सज्जन ने बहुत अनुनय किया कि मेरे पास चिल्लर ही है, दूसरे नोट नहीं है। बिटिया के लिए फॉर्म ले जाना जरूरी है परंतु उनकी बात नहीं सुनी गई।
मेरे मित्र ने उनसे चिल्लर लेकर उन्हें पचास रुपए का नोट तो दे दिया। परंतु मेरे मन में यह बात चुभ रही थी क्यों कुछ शिक्षित एवं सभ्य कहलाने वाले लोग अपनी जरा-सी असुविधा के लिए किसी गरीब की मजबूरी नहीं समझते?