उस दिन जाने कहाँ से दो बिल्लियाँ आईं और आपस में झगड़ने लगीं। देखते ही देखते उन घरेलू बिल्लियों की लड़ाई ने खूँखार रूप धारण कर लिया। पंजों व दाँतों से एक-दूसरे को लबूरकर दोनों लहूलुहान हो गईं। घर से भगाया तो आँगन में, आँगन से भगाया तो फुटपाथ पर डट गईं।
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खड़े बाल, गुर्राकर दाँत दिखाती, क्रोधित आँखें व खून में सनी होने के कारण दोनों भयानक लग रही थीं। मोहल्ला इकट्ठा हो गया। डंडे की फटकार व पाइप से पानी की बौछार भी उन्हें भगा न सकी। तभी गाय का एक बछड़ा जो वहीं सब्जी के छिलके खा रहा था, उन बिल्लियों के पास धीरे से गया व उन्हें अपनी जीभ से चाटने लगा।
पहले एक बिल्ली को, फिर दूसरी को। हमें लगा बिल्लियाँ बछड़े पर ही हमला न बोल दें। मगर नहीं! पहले एक बिल्ली दुबकी, फिर हौले से गुर्र... गुर्र... किया, फिर बैकफुट की मुद्रा में आ गई। फिर दूसरी बिल्ली ने भी वही किया। बछड़ा पूर्ववत दोनों को जीभ से मानो पुचकारकर समझा रहा था।
हम सब किंकर्तव्यविमूढ़ ये नजारा देख रहे थे। जिस खूँखार झगड़े को इंसानी डंडे की फटकार काबू में न कर सकी, उसे एक मूक बछड़े ने शायद सिर्फ प्यार की मौन भाषा ने हल कर दिया। वो सचमुच एक सुखद व भीना एहसास था और शायद मौन संदेश भी।