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पहेली

लघुकथा

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- चेतना भाट
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उस परिवार से हमारी मित्रता काफी पुरानी है। नासिक की रहने वाली वे दो सिख परिवार की बहनें हमारे ही शहर में ब्याही गई थीं। दो भाइयों के साथ, एक ही घर में। आज संयोग से साथ मिल बैठने का अवसर बना है। बातों का सिलसिला चल पड़ा। 'अरे वाह। आपको तो कितनी भाषाएँ आती हैं? हमने आश्चर्य व्यक्त किया- 'गुरुमुखी तो आपकी मातृभाषा है ही, हिन्दी-अँगरेजी स्कूल में पढ़ी हैं' और मराठी भाषी माहौल ने आपको मराठी भी सिखा दी है।

हाँ, जब दोनों आपस में गुस्सा होती हैं तो मराठी में ही बोलती हैं- उनके जेठजी ने चुटकी ली। सब हँस पड़े तो एक बहन मुस्कराते हुए बोली- 'जी हाँ, आखिर हम सोचते तो मराठी में ही हैं न और बाकी भाषाएँ तो सोच-समझकर बोलते हैं।' मैं सोचती ही रह गई। उँगली उठा-उठा कर धमकाते हुए स्वयंभू नेता-दंगाई दृष्टा और कुछ शब्द जैसे परप्रांतीय- मराठी माणुस- गैरमराठी आदिदिमाग में घूमते हुए एक पहेली में उलझा गए, जो हाल ही के दिनों में देखे-सुने थे।

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