एक मेरा परिचित था दीपेश। उसके पिताजी सरकारी नौकरी में थे। सेवानिवृत्ति की आयु में शासकीय नियमानुसार उनका रिटायरमेंट हुआ। दीपेश के पिताजी वन विभाग में अधिकारी थे। पेंशन भी तेरह-चौदह हजार रुपए प्रतिमाह मिलती थी। उम्रदराज होने के कारण उनका स्वास्थ्य दिनोंदिन गिरता जा रहा था और उनके स्वास्थ्य पर कोई विशेष ध्यान दीपेश और उसका भाई देते नहीं थे। दोनों अपने-अपने बीवी-बच्चों के साथ मस्त।न ही पिताजी को डॉक्टर को दिखाने ले जाते और न ही उनकी दवाइयाँ समय से लाकर देते। कभी-कभी उनकी माँ जरूर पास के दवाखाने में इलाज करा आती थीं। आखिर एक दिन जब पिताजी बहुत बीमार हुए और बेटे-बहुओं को लगा कि अब इनकी उलटी गिनती शुरू हो गई है, तब जाकर उन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दिया और कुछ दिनों के बाद उनका देहांत हो गया।उनकी वही पेंशन अब माँ को मिलने लगी। माँ की भी उम्र हुई और वह भी बीमार रहने लगीं। लेकिन यह क्या माँ को जरा सी भी ठंड लगती तो बच्चों में से कोई न कोई सारे काम छोड़कर उनको डॉक्टर के यहाँ ले जा रहा है। स्पेशलिस्ट को दिखवा रहा है। डॉक्टर साहब से कहते हैं महँगी दवा लगे चाहे इन्हें भर्ती करना पड़े लेकिन इन्हें जल्द से जल्द ठीक कर दो।
देखकर मुझे भी सुकून हुआ कि पिताजी का नहीं सही माँ का तो ध्यान रखते हैं। मुझसे रहा न गया मैंने एक दिन दीपेश से पूछ ही लिया, यार ,बाऊजी के समय तुम इतने लापरवाह रहे, शायद इसलिए तुम्हें भूल का अहसास हो रहा है।'
जवाब जो मिला सुनकर सन्न रह गया । दीपेश बोला, '' नहीं यार, माँ की पेंशन से ही तो ऐशो-आराम है। उसका स्वस्थ रहना जरूरी है।''
'' पर पेंशन तो बाऊजी को भी मिलती थी ना ?'' मेरा प्रश्न था ।
दीपेश बौखला कर बोला '' बाऊजी तो हाथ रखने ही नहीं देते थे पैसों पर। और फिर माँ के बाद तो पेंशन बन्द हो जाएगी ना । ''
मैं चुप हो गया ।