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प्रवीण कुमार गार्ग
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मेरे एक चिकित्सक मित्र सम्मेलन में भाग लेने हेतु जर्मनी गए थे। प्रवास के दौरान उन्होंने एक दिलचस्प और विचारोत्तेजक घटना देखी। वे जहाँ ठहरे थे, वहाँ समीप ही एक सुंदर, स्वच्छ झील थी। एक सुबह जब वे झील के किनारे टहल रहे थे, तब उन्होंने देखा- एक व्यक्ति किनारे पर मछली के लिए काँटा डाले बैठा है।

बहुत इंतजार के पश्चात उसके काँटे में एक मछली फँस गई। उसने मछली को ऊपर लाकर अपने पास रखी स्केल से उसकी लंबाई को नापा और फिर उस मछली को काँटे से निकालकर वापस पानी में छोड़ दिया। यह देखकर चिकित्सक महोदय हैरान हो गए। उनसे रहा नहीं गया, उन्होंने उस व्यक्ति से इसका कारण जानना चाहा।

उस व्यक्ति ने बताया कि नियमानुसार एक निश्चित लंबाई से छोटी मछली पकड़ने की मनाही है। वह मछली छोटी थी, इस कारण मैंने उसे छोड़ दिया। यह सुनकर मेरे मित्र स्तब्ध रह गए। उस स्थान पर निरीक्षण के लिए एक भी व्यक्ति नहीं था, फिर भी स्वअनुशासित होकर उस आदमी को नियम का पालन करते देखना सचमुच एक भारतीय के लिए आश्चर्य, ईर्ष्या और फाँस का कारण था।

हम तो नदियों, तालाबों, कुओं को डस्टबिन बना रहे हैं। हमारे लिए तो नियमों का उल्लंघन करना आनंद और प्रतिष्ठा की बात है। पश्चिमी सभ्यता, संस्कार की हम बुराई कर संतुष्ट तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी समृद्धि एवं विकास के पीछे छिपे ईमानदारी और अनुशासन को नकार नहीं सकते। फिर उनकी ईमानदारी के वे उतने गीत भी नहीं गाते जितने हम गाते हैं।

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