घटना कुछ वर्ष पूर्व के जून माह की है। तपती दोपहरी में गर्मी अपने तीखे तेवर बड़ी बेरुखी से दिखा रही थी। कूलर, पंखे सब बेअसर हो चुके थे। गर्मी की भीषणता से बचने के लिए सभी अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। हाँ, सड़क पर गाड़ियों के हॉर्न का स्वर मुखरित हो रहा था। मैं अपने घर की खिड़की के पर्दे बंद करने गई तो देखा एक वृद्धा एक छतरी हाथ में थामे और ऐनक लगाए हुए इस भीषण गर्मी में एक तपस्विनी-सी खड़ी दिख रही थीं।
उनकी दृष्टि इंदौर की ओर से आने वाली बसों की ओर थीं। मैं समझ गई कि शायद वे किसी की प्रतीक्षा कर रही हैं। शायद उनका बेटा-बेटी, पोता-पोती, कोई प्रियजन हो जिसे धूप से सुरक्षित रखने के लिए स्वयं इस तपती दोपहर में परेशान हो रही हैं। मानव-सुलभ कौतूहल मेरे अंदर जन्म ले रहा था कि माँजी किसकी प्रतीक्षा में खड़ी हैं? अतः मैं खिड़की पर ही खड़ी हो गई। करीब पौने तीन बजे एक स्कूल बस आकर रुकी और उसमें से एक महिला उतरी व तुरंत ही सड़क के दूसरी ओर खड़ी माँजी की ओर बढ़ गई।
मैंने उसे पहचानने की कोशिश की। अरे! यह तो मेरी मित्र ही है, जिसकी नियुक्ति इंदौर के एक विद्यालय में है और ये, ये हैं उसकी सास। मित्र अपनी सासुजी के ममत्वपूर्ण व्यवहार के बारे में अक्सर बताती रहती हैं, परंतु आज मैंने उस प्रेम रसधार को प्रवाहित होते अपनी आँखों से देखा।
मित्र का घर सड़क से बहुत पास ही था, मुश्किल से पाँच मिनट में इस दूरी को तय किया जा सकता था, जिसके लिए वृद्ध सास स्वयं दस-पंद्रह मिनट धूप में तपती रही थी, पर बहू को थोड़ी देर भी धूप में झुलसते नहीं देख सकती। सास को माँ के साकार रूप में देख व बहू के प्रति यह ममत्वपूर्ण व्यवहार देख मेरा मन गद्गद् हो गया। मेरा सिर स्वतः उनके सम्मुख श्रद्धा से नत हो गया और एक भीना-सा एहसास मुझे अंतर तक भिगो गया।