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फाँस : ग्लानि !

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- नवीन बी. जोश
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घटना उस समय की है, जब इंदौर की सारी कपड़ा मिलें चालू थीं। मैं कल्याणमल मिल में लिपिक के पद पर कार्यरत था। एक रोज कार्यालय जाते समय सुबह करीब 10 बजे भंडारी मिल चौराहे पर भीड़ लगी देख रुक गया। भीड़ के बीच एक जवान आदमी सड़क पर पड़ा हुआ था। उसका स्कूटर भी एक ओर गिरा था। लोगों से मालूम हुआ कि कोई ट्रक वाला उसको टक्कर मारकर चला गया है। उस दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की जाँघ पर से ट्रक का पहिया निकला था, जिससे कि उसकी जाँघ फट गई थी।

वह सदमे में कुछ भी बोल नहीं पा रहा था, किंतु उसकी कातर निगाहों को देखकर लगा जैसे वह मदद के लिए याचना कर रहा है। मैंने लोगों से उसे अस्पताल ले चलने के लिए कहा, किंतु कोई भी व्यक्ति साथ चलने को तैयार नहीं था। अकेले उसे अस्पताल ले जाने में मुझे भीपुलिस की पूछताछ व कोर्ट-कचहरी के चक्कर में फँसने का भय होने लगा। पास ही रिक्शा स्टैंड था। मैंने रिक्शा वालों को कहा कि इसे अस्पताल ले जाओ, तुम्हारा जो भी किराया होता है (तब रिक्शाओं में फेयर मीटर नहीं लगे थे) मैं दे देता हूँ, लेकिन कोई भी रिक्शावाला तैयार नहीं हुआ।

मैं भी समय अधिक हो जाने से उसको उसी तरह पड़ा छोड़कर अपने कार्य पर चला गया। अगले दिन अखबार में उस व्यक्ति की मौत का समाचार था। हमारे कानूनी दाँव-पेंच व पुलिस के चक्कर में उलझने के डर से वह मौत के आगोश में चला गया था। हम समय पर उसे अस्पताल ले जातेतो हो सकता था उसकी जान बच जाती। आज भी उसकी याचक आँखें याद आने पर मन आत्मग्लानि से भर उठता है।

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