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नूतन भोरास्कर
सुबह-सुबह थोड़े अँधेरे में ही श्रीमती वर्मा अपने घर से मॉर्निंग वॉक के लिए निकलीं। थोड़ी-ही दूरी पर कॉलोनी की सड़क पर उन्हें विमलाजी भी जाती हुई दिखाई दे गईं, बस! उन्होंने भी अपने कदम तेजी से बढ़ा लिए। अपनी भारी काया को संभालते हुए, आखिर उन तक पहुँच ही गईं। यूँ तो विमलाजी भी उनकी ही तरह स्थूल काया ही हैं, पर जल्दी निकल गई हों, यही सोचकर उन्हें रोकने की गरज से उन्होंने आवाज देकर पूछा- 'आज क्या, और जल्दी निकल आईं आप विमलाजीऽऽ? अभी तो छः भी नहीं बजे हैं।'
-'हाँऽऽ। आज जरा जल्दी नींद खुल गई और अब से सोचा है जल्दी उठकर ही आया करूँगी।' विमलाजी बताने लगीं। दोनों बातें करते-करते मुख्य सड़क पर आ गईं, कॉलोनी से बाहर निकल कर। यहाँ और भी लोग दिखाई दे रहे हैं।
कुछ जल्दी-जल्दी चल रहे हैं। कुछ 'हरि ओम', कोई 'जय श्रीराम' कहकर आगे बढ़ जाते हैं। चलते-चलते श्रीमती वर्मा और विमलाजी ने नाक ढँक ली। अब ये छोटी पुलिया और झोपड़-पट्टी वाला इलाका आ गया है। ढेरों झोपड़ियाँ बनी पड़ी हैं। कहीं धुआँ उठ रहा है। टेप रिकॉर्डर की आवाज भी आ रही है।
एंटिना और तारों का जाल-सा बिछा है, झोपड़ियों पर। उधर कुछ लोग नित्यकर्म के लिए बैठे हैं। कुछ सड़क के किनारे, कुछ पुलिया के नीचे। 'उन्हें' देख इन्होंने नजरें चुराईं, 'इन्हें' देख उन्होंने। झोपड़ियों के आगे लगे टाट, पुरानी चादरों और पैबंद लगा आधे-पूरे बाथरूमों में औरतें-बच्चे नहा भी रहे हैं। खुले में आदमी। सार्वजनिक नलों पर बरतनों की लऽऽम्बी कतार है। वहीं लड़ने-झगड़ने का शोर भी उठ रहा है।
'बस! ये इतना स्लम एरिया क्रॉस करना मुश्किल होता है। इसी को अवॉइड करने के लिए, मैं आजकल जल्दी उठकर आती हूँ। पर जब भी आओऽऽ यहाँ तो और भी पहले ही सब शुरू हो जाता है।' विमलाजी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।
-'ये लोग सुलभ शौचालय क्यों नहीं इस्तेमाल करते! सुबह-सुबह 'दर्शन' हो जाते हैं।' श्रीमती वर्मा ने नाराजगी जताई।
-'पहले कम झोपड़ियाँ थीं। तब एकाध 'सुलभ' होगा यहाँ। अब तो इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि... हुँह! इनका कुऽच्छ नहीं हो सकता।' विमलाजी ने भी अलापा।
-'मैं तो कहती हूँ इन्हें कहीं और शिफ्ट कर देना चाहिए। देखो, अब आसपास कितनी अच्छी-अच्छी कॉलोनियाँ बन गई हैं और बीच में ही ये! खूऽब फैल भी गई हैं झोपड़पट्टियाँ।'
-'आऽ, हाँऽऽ अब मिली फ्रेश एयर।' विमलाजी ने नाक पर से रूमाल हटाया। वे अभी उबरी नहीं हैं। 'मुझसे एक्सरसाइज' तो होती नहीं है। 'मॉर्निंग वॉक' के लिए डॉक्टर ने कहा है, क्योंकि मेरी शुगर भी बढ़ गई है न?'
विमलाजी बोलीं।
-'वैसे मॉर्निंग वॉक सबसे बढ़िया होता है। घूमना तो सुबह ही चाहिए। शाम को तो यूँ भी सड़कों पर इतनी भीड़ हो जाती है, कि डर भी लगता है। पता नहीं कब कौन टक्कर मारकर चला जाए!' श्रीमती वर्मा ने अपना डर जताया।
-'या फिर शाम को बगीचे में घूमो। है न?' विमलाजी ने कहा।
-'आजकल आठ-दस दिनों से मेरी सास आई हुई हैं। सुबह का समय मिल जाए वही बहुत है।' श्रीमती वर्मा ने दुखड़ा रोया।
-'अभी रहेंगी क्या?' विमलाजी की सहानुभूति।
-'हाँऽऽ महीना-दो महीना तो रहेंगी ही, फिर भाई साहब ले जाएँगे। देखो कब ले जाते हैं। देखिए ना, वो ओल्ड एज हैं और मेरी तबीयत ऐसी रहती है। अपने आप को संभालूँ कि उनकी तीमारदारी करूँ?' श्रीमती वर्मा कलपीं।
-'बाई क्यों नहीं रख लेतीं आप? पूरे समय की।' अचानक पीछे से आवाज आई, तो दोनों ही चौंककर पलटीं- 'अरे सरिता, तुम कब आईं?'
-'मैं तो कब से ही तुम लोगों के साथ आने की कोशिश कर रही हूँ, इसलिए बात सुन गई।' सरिता बोली। श्रीमती वर्मा और विमलाजी की नजरें आपस में टकराईं, अर्थपूर्ण ढंग से- 'बच गए। अच्छा हुआ, इसकी बुराई नहीं कर रहे थे।'
-'मेरी सास आई थी न! तब मैंने तो यही किया था। पूरे दिन की बाई रख ली थी। अपने से नहीं होता।' सरिता ने गर्व से कहा।
-'हाँऽऽ, और क्या! ऊपर से मिलने आने वाले! कितना काम बढ़ जाता है।'
-'मैंने तो सब कामों के लिए अलग-अलग बाई रखी है। झाडू-पोंछा, बरतन-कपड़े, खाना बनाने वालीऽऽ ऊपर की साफ-सफाईऽऽ, एक ने छुट्टी की कि दूसरी से करवा लेती हूँ। पर उन पर ध्यान भी खूब देना पड़ता है।' विमलाजी ने अपना स्टेटस दिखाया।
-'वैसे तो मैंने भी माया से कह दिया है, झाडू-पोंछा तू करती ही है तो सुबह शाम दो-दो घंटे रुककर अम्माजी का काम कर के जाया कर।
मेरी दूसरी बाइयों को तो फुरसत ही नहीं है। माया को मगर रोज पन्द्रह मिनट, आधा घंटा देर न हो जाए, तो वो 'माया' ही क्या?' श्रीमती वर्मा ने कहा।
-'अरे खूऽऽब मिल जाती हैं इस झोपड़-पट्टी में। कोई और लगा लो!' सरिता ने लापरवाही से कहा।
-'रहती तो माया भी यहीं है। कह भी रही थी कि मैं आपको देखती हूँ रोज सुबह घूमने जाते हुए। पर मैं तो उधर देखती ही नहीं। पता नहीं कैसे लोग हैं। किसकी नजर कैसी है!' श्रीमती वर्मा ने अपना डर जताया।
-'वैसा माया आपके पास काफी समय से है न?' सरिता ने पूछा।
-'हाँ! पाँच साल पहले हम यहाँ नए आए थे और ये झोपड़ियाँ भी इतनी नहीं थीं। तब लगी थीं। हम तो दूर से आवाज देकर भी बुला लेते थे कई बार।' श्रीमती वर्मा ने कहा, 'अब तो जैसे-जैसे नई-नई कॉलोनियाँ और बंगले बन रहे हैं, झोपड़पट्टियाँ भी उसी तेजी से बढ़ रही हैं।'
-'पर ये लोग कितनी गंदगी में और कैसे तो रहते हैं?' सरिता बोली।
-'बताऊँ? मैंने तो माया के लिए अलग से साड़ी रख दी है। आते ही पहले कहती हूँ, तू कपड़े बदल बाबा।' श्रीमती वर्मा ने जोड़ा- 'पता नहीं, कब नहाते-धोते हैं।'
-'क्या नहाते होंगे! इतनी जल्दी काम पर आ जाते हैं। क्या साफ-सफाई से रहते होंगे! मुझे नहीं लगता। हमारे पड़ोस की नैना की तो सुबह ही साढ़े छः बजे बाई की घंटी से होती है। मैंने तो कितनी बार उनका छत वाला बाथरूम बाई को इस्तेमाल करते देखा है। मैंऽऽ नहीं लड़ियाती, फालतू। अपना काम करो और जाओ।' सरिता ने रौब झाड़ा।
-'वैसे तो डेढ़-दो हजार खर्चा करें तो महँगे नौकर भी मिल जाते हैं। फिर अपन कहें, तो हाथ-मोजे चढ़ाकर भी काम करें अपना।' श्रीमती वर्मा ने कहा।
-'मगर इतने महँगे नौकर, फिर उनके नखरे और माँगें भी महँगी! फिर हम कहाँ जाएँगे?' विमलाजी के बोलने पर सब हँसने लगीं।
-'नहीं अफोर्ड कर सकते। इतने पर घर का बजट गड़बड़ा जाएगा। इतने में तो 'ऐसे' चार रख लें।' सरिता ने कहा। -'फिर वे नौकर वैसा काम भी नहीं कर पाते, जो ये बाई वगैरा कर देते हैं।' श्रीमती वर्मा ने कहा।
-'पर आजकल तो कामवालियों के भाव भी चढ़ गए हैं। जरा-सा ज्यादा का काम बताया, कि मुँह देखो उनका! दस-पाँच का नोट दिखाओ, तो फिर खुश!' विमलाजी ने बताया।
-'हाँ, मैंने भी बाई के लड़के से लॉफ्ट साफ करवाया, ट्रंक उतरवाए। रद्दी निकलवाई। अपने से कहाँ होता है। फिर दिए बीस-पच्चीस रुपए।' सरिता बोली।
-'हमने तो ऊपर वाली टंकी साफ करने का बोल रखा है, बाई के हसबैंड को। मगर कल तो आया नहीं निकम्मा। अब आटा पिसवाने आएगा। उसी दिन करवा लूँगी, खड़े होकर। अब ये काम कोई घर के लोगों से होते हैं भला!'
श्रीमती वर्मा ने कहा। और ये छोटे झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग कितने कामचोर और निकम्मे हैं। इस विषय पर बोलते, सफाई और प्रदूषण के पाठ इनको किस तरह पढ़ाए जाने चाहिए, इस पर सोचते, झोपड़ियों के हटने पर क्या नुकसान होगा, इस पर बतियाते वे लोग एक बड़े से महात्मा गाँधी पार्क में पहुँच गईं।
यहाँ उन्हीं की तरह और भी ढेर सारी महिलाएँ हैं। आधे पार्क पर पुरुषों का कब्जा है। कोई व्यायाम कर रहा है, कोई आराम। कोई बगीचे में टहल रहा है। अब सब यहाँ हास्य क्लब चलाएँगे। चारों ओर से ठहाकों, तालियों, हा हा, हू हू की आवाजें आने लगीं हैं। करीब एक, डेढ़ घंटे बाद सब लौट जाएँगे।
***
उधर झोपड़पट्टियों में कहीं पानी भरना, लड़ना, कपड़े धोना, खाना बनाना चल रहा है। 'कुछ' बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में हैं, 'ज्यादातर' काम पर जाने की जल्दी में हैं। कहीं लाइन में खड़े होकर एक-दूसरे पर 'देर' करने का आरोप-प्रत्यारोप करते लोग अपनी झल्लाहट एक-दूसरे पर निकाल रहे हैं। कोई घर में ही गाली-गलौज, मारपीट पर उतर आया है।
कुछ को कलाली खुलने का बेचैनी से इंतजार है। धुएँ के बादल से बन रहे हैं। चारों ओर शोर है और उस पर टेपरिकार्डर का भी जोर है। शोर-शराबा, चहल-पहल देखते लगता ही नहीं कि ये अलसुबह है। माया का पति टूटे दरवाजे पर झोपड़ी के सामने उकडूँ बैठा, मंजन कर रहा है। सामने लगे टाट, पैबंद के पुराने कपड़ों आदि से बने बाथरूम में 'कासी', माया की बेटी, नहा रही है।
माया की झोपड़ी से मेनरोड पर घूमने जाने वाले दिखाई दे रहे हैं। कुल्ला करते-करते माया का पति चिल्लाया- 'एऽऽऽ कासीऽऽ जल्दी से नहाकर निकल, वो आ गए देख सुबे-सुबे घूमने वाले। पता नहीं किसकी नजर कैसी हो।' वह बड़बड़ाया। इतने में माया पानी का पीपा भरकर उठा लाई- 'लोऽ अब तुम नहाते रहना।'
-'तू नहा ली?' पति ने पूछा।
-'मैं कब नहाऊँ! नल चले गए। अब 'हैंडपंप' से पानी लाना पड़ेगा। लंबी लाइन लगी है उधर। मेरे को देर हो जाएगी तो! अभी घर का काम पड़ा है और चार घर निबटाकर फिर जाऊँगी वो चौथी लाइन वाली मेमसाब के वहाँ...।'
-'ऐ! तू जरा कासी को जल्दी कर।' उसने चिल्लाकर कहा।
-'और कित्ती जल्दी करूँ बापू? जित्ती जल्दी करो, उससे भी जल्दी उठकर आ जाते हैं ये! मेरे को ठंड नईं लगती क्या।' कासी बड़बड़ाती हुई टाट उठाकर बाहर निकली और झोपड़ी में घुस गई।
-'हाँऽऽ! ये थोड़ी देर से उठें तो इनको क्या फर्क पड़ता है? हमको भी सुविधा हो जाएगी। सुबे-सुबे का टेंसन बेफालतू।' वो झल्लाया।
-'वैसे भी साफ-सफाई काम वगैरा तो हमको ही करना है।' माया ने भी जोड़ा। माया बातूनी है खड़ी हो गई वहीं, 'वो भी क्या करे! तबीयत उन लोगों का साथ नहीं देती। मेरी मेमसाऽऽब तोऽऽ बिचारी सकर की बीमारी से दुःखीऽऽऽ, उप्पर सेऽऽ बिच्चारी की साऽऽस...।'
-'चल चल- तू जल्दी कर। नहीं तो तेरी ये इच बिच्चारीऽऽ मेमसाब डाँटने में कसर नई रख्खेगी।' माया के पति ने बीच में ही उसकी बात काटकर कहा। वैसे भी उसे इन बड़े लोगों की तरफदारी करना जरा भी पसंद नहीं है, 'और अम्मा कब से आवाज दे रही है, सुनाई नईं देतातेरे कोऽऽ?'
-'हाँ! और पैसे देने के टाइम कितनी किचकिच करती हैं ये आंटी लोग।' कासी का बेटा न जाने कहाँ से आकर बीच में ही बोला। परसों ऊपर का माला साफ करवाने का पूछ रई थी एक आंटी। मैंने पच्चीस रुपए माँगे तो चिक-चिक करने लगी। वहींच पटककर आ गया काम। अब करें अपने आप।' कासी का बेटा शान से बोला।
-'मुएऽऽ उनका कुछ नई बिगड़ाऽऽ। चंपा का महेस पंद्रह रुपए में कर आया काम। पर अपना तो नुसकान हो गया ना? एक घर भी गया। लगा के रखने पड़ते हैं घर। आड़-अड़च्चन, ज्यादा-कम पैसे की जरूरत पड़ती है तो कहाँ से लाती हूँ मैं? ऐंऽऽ नासपीटा सान मारे खड़ा खड़ा।'माया उस पर बुरी तरह निकल ली।
झोपड़ी के पीछे से माया की सास बार-बार आवाजें लगा रही है। काम निपटाकर माया ने थोड़ा तेल, बालों में डाला। वही हाथ-पैरों पर भी मसल लिया। जल्दी से चोटी डाली, माँग भरी और माथे पर गोल बड़ी-सी बिंदी लगाई। एक नजर अपनी झोपड़ी के कमरे पर डाली। सोचा, चलो टीवी, फ्रिज तो है ही। इस बार कपड़े धोने की मशीन भी ले लूँगी किसी से। सोचकर माया खुश हो गई। मेमसाब की सास दो-चार महीने टिक गईं, तो इंतजाम हो ही जाएगा।
माया बाहर निकलने ही वाली थी, कि अम्मा की फिर आवाज आई- 'ऐ मायाऽऽ जरा-सा घुटनों परये तेल तो मसल दे।' और वो खुद हाथ पर चूना और तंबाकू मसलने लगी। खाट के पास नीचे बैठकर माया ने फटाफट दो-दो हाथ घुटनों पर चलाए, झटपट बोतल का ढक्कन बंद कर दिया।
-'ऐ। हैंऽऽ! जरा निरात से कर- इत्ती क्या जल्दी मचा रही है?' अम्मा नाराज हो गई।
-'अम्माऽऽ उधर मेमसाहब की सास आई है। अब उनसे तो कुछ बनेगा नईं। मेरे को ही करना है। पैसे भी मिलेंगे अलग से।' माया ने उठते हुए कहा।
-'ऐ लोग खुद क्यों नईं करते कुछ काम। मुए। सेहत भी सुधरी रहेगी। बड़े-बड़े पेट लेकर यू घूमना नईं पड़ेगा।
फालतू सुबे-सुबे, सबेरे-सबेरे हा हा, ही ही करते।' अम्मा बड़बड़ाने लगी। जाते-जाते चिल्लाकर बोली- 'ना ना अम्माऽऽ उनकी सेहत को कुछ मत कहना। उनके बड़े-बड़े पेटों से ही तो हमारे छोटे-छोटे पेट पलते हैं। भगवान उनकी तबीयत को नाजुक ही बनाए रख्खे।'
अम्मा लड़खड़ाती बाहर आई, मगर माया नहीं रुकी। उसे फुरसत कहाँ? और लो, आज तो फिर देर हो गई।