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नीता श्रीवास्तव
कॉलोनी में एक वही हैं जो बिना बेटे वाली हैं और इस बात का एहसास प्रायः प्रत्येक सार्वजनिक अवसरों पर बेटों वाली माँएँ बराबर करा ही देती हैं। वे जानती हैं बेटी बुरी नहीं होती। बेटी बोझ नहीं होती। वे तो सिर्फ लाठी नहीं बेटी को बुढ़ापे की बैसाखी भी मानती हैं... बेटी को बाजू की ताकत मानती हैं। किंतु उनकी दलीलों पर हँसती हैं बेटों वालियाँ। बेटों की बात ही अलग होती है। बेटा हो तो शान में चार चाँद लग जाते हैं। कॉलोनी की सभी स्त्रियाँ इसी धारणा की हैं। और उन्हें रहना, घूमना-फिरना इन्हीं स्त्रियों के बीच है, तो व्यर्थ विवाद क्यों? |
कॉलोनी में एक वही हैं जो बिना बेटे वाली हैं और इस बात का एहसास प्रायः प्रत्येक सार्वजनिक अवसरों पर बेटों वाली माँएँ बराबर करा ही देती हैं। वे जानती हैं बेटी बुरी नहीं। बेटी बोझ नहीं होती। वे तो सिर्फ लाठी नहीं बेटी को बुढ़ापे की बैसाखी भी मानती है। |
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वे डिनर पर सपरिवार पहुँचीं। ऑफिसर कॉलोनी... माहौल भी दिखावटी... टेबल के समीप जाकर देखा... चाइनीज और साउथ इंडियन डिशेज।
बिटिया चहक उठी। उसकी पसंद का खाना मगर वे परेशान हो उठीं। छुरी-काँटे-चम्मच और स्टिक्स। टेबल मैनर्स से वाकिफ होने के बावजूद वे परेशान थीं।
- 'गुड़िया... मैं नहीं खा पाऊँगी छुरी-काँटे या चम्मच से...' उनका स्वर सुनते ही ग्रुप की कई महिलाएँ हर्षित हो उनकी हाँ में हाँ मिलाने लगीं।
- 'सच कहती हैं आप... उँगलियाँ चाटे बगैर कहीं पेट भरता है... और सच तो यह है छुरी-काँटे या खप्पचियों से हमें खाना आता भी नहीं है।' माँओं के ये स्वर सुन कई बेटे चौकन्नो हो गए।
- 'नहीं आता तो सीखो... लोग देखेंगे तो गँवार-जाहिल कहेंगे।' बेटे बोले।
- 'लेकिन मेरी प्रॉब्लम कुछ और है... मेरी परेशानी काँटे-चम्मच नहीं है, बल्कि मेरे ये हिलते हुए दो दाँत हैं सामने के... बहुत संभालकर एक-एक कौर खाना पड़ता है मुँह में... जरा से में दर्द से जान निकल जाती है...।' उनकी बात सुनकर भी लड़के अड़े रहे इसी बात पर कि... लोग हँसेंगे... गँवार-जाहिल कहेंगे।
और तब... तब बोल पड़ी उनकी बिटिया- 'माँ... आप जैसे भी खाना चाहें... खाइए और भरपेट खाकर चलिए... आंटी आप सब भी। लोगों की परवाह छोड़िए। कोई कुछ कहकर या हँसकर तो देखे... उसका मुँह तोड़ दूँगी।'