अंतिम मरीज को दवाई लिखकर मैं अपनी सीट से उठ ही रहा था कि एक वृद्धा ने कम्पाउंडर को लगभग धकेलते हुए कक्ष में प्रवेश किया। शायद वह मेरे अकेले होने का इंतज़ार कर रही थी।
'क्या हुआ माताजी! कल ही तो आपको इलाज लिखा है।' मैंने संयमित स्वर में पूछा। सत्तर वर्ष की उम्र में भी वह शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थीं। वह अपने मोतियाबिंद को दिखाने आई थीं, उनका ब्लडप्रेशर तथा शुगर भी नॉर्मल थे।
तभी उन्होंने पूछा-'मैं क्या-क्या खा सकती हूँ?'मैंने कहा-' सबकुछ खाओ, वैसे भी आपको मोतियाबिंद के अलावा कोई तकलीफ नहीं है।' मैंने जवाब दिया।
'तो एक काम करो डॉक्टर साहब, इस पर्चे पर घी की रोटी और बघरी हुई दाल खाने के लिए लिख दो। बहू पढ़ी-लिखी है, आपकी बात जरूर मानेगी।' सहसा मेरी आँखों के आगे मुँशी प्रेमचंद की कहानी 'बूढ़ी काकी' की काकी सजीव हो उठी।