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माँ आखिर माँ ही होती है

लघुकथा

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मंगला रामचंद्रन
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कांता बड़ी खुशमिजाज लड़की थी। सुबह से ही पूरे उत्साह के साथ सारे काम करते हुए स्कूल जाने को तैयार होती। पर घर से निकलते-निकलते उसका मूड कुछ खराब सा हो जाता और चेहरा बुझा हुआ लगता।

कांता की खास सहेली शोभा और वह साथ में ही स्कूल आना-जाना करते। स्कूल में भी साथ-साथ रहते। लड़कियाँ उन्हें चिढ़ातीं - 'जुड़वाँ'। दोनों पढ़ाई में भी एक-दूसरे की मदद करती रहतीं।

शोभा का घर आते-आते कांता की चाल बहुत धीमी हो जाती। वह दूर से ही देखती कि शोभा की माँ तो नहीं दिख रही। मन ही मन प्रार्थना करती ‍िक शोभा स्वयं ही समय से बाहर आ जाए। उस दिन भी शोभा की माँ ही बाहर थी और कांता को देखकर अंदर आवाज लगाई।

'ए मुँहजली, तैयार हुई कि नहीं करमजली? कांता आ गई है, जल्दी निकल मुँहझौंसी!'

कांता का मन हमेशा की तरह खराब हो गया। कई बार वह सोचती कि शोभा से कह दे कि वही उसके घर आ जाए और वहीं से स्कूल जाया जाए। पर रास्ता उलटा और चक्कर वाला हो जाता।

शोभा हँसते हुए तेजी से अपना स्कूल बैग सँभालते हुए आई। कांता को लगा, जान बची, नहीं तो और दो-चार अपशब्द सुनने पड़ते। पर आश्चर्य होता कि शोभा के माथे पर शिकन तक नहीं आई। वह हँसती-चहकती सहज ही थी।

आखिर उस दिन कांता ने शोभा से ही पूछ लिया, 'शोभा, तेरी माँ क्या हमेशा ऐसे ही नाराज रहती है? बिना मतलब तुझे डाँटती, गाली देती है? तुझे बुरा नहीं लगता?' शोभा ने आश्चर्य से पूछा, 'गाली?'

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फिर खिलखिलाकर हँस पड़ीँ 'मेरी माँ बहुत खुशमिजाज हैं। कभी नाराज हो नहीं सकतीं। वह तो उनका बोलने का लहजा ही ऐसा है। पता है कांता, जिस दिन वह इस तरह हम लोगों से बातें नहीं करतीं तो लगता है कि अवश्य कुछ गड़बड़ है।'

बेचारी कांता अपनी सहेली को मुँह बाए देखती रह गईसोचने लगी, माँ आखिर माँ ही होती है

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