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लघुकथा : अनमोल तोहफा

- शिखा पलटा

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मुझे याद है, मैं आठ साल की थी, अपनी सहेलियों के साथ बगीचे में खेल रही थी तभी हमने एक आवाज सुनी- 'चाय के कप ले लो', 'चाय के कप ले लो'। एक छोटा लड़का छोटे-छोटे चाय पीने के स्टील के कप बेच रहा था।

मैं दौड़कर अपनी मां के पास गईं और कप दिलवाने की जिद करने लगी।

मां ने हंसते हुए मुझसे कहा- 'बेटा, तुम्हारे पास तो इतने सारे अच्छे-अच्छे कप्स हैं, फिर तुम ये स्टील के कप क्यूं लेना चाहती हो?'

मैंने जिद करते हुए मां से कहा, 'मां मैं इसमें चाय पीयूंगी और फिर मेरा जन्मदिन भी तो आ रहा है ना! ये मेरे जन्मदिन का तोहफा है।'

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मां मुस्कुराने लगी और मुझे वह चाय का कप दिलवा दिया।

मैं जब भी चाय पीया करती, उसी कप में पीती। अब तो मैं कॉलेज जाने लगी थी, लेकिन उस स्टील कप से चाय पीने की कुछ आदत-सी हो गई थी मेरी। कॉलेज के बाद नौकरी, ऑफिस से आकर सबसे पहले मां के हाथ की चाय पीती, वही मेरे छोटे से स्टील के कप में और मां से गप्पे मारती, ऑफिस की पूरी दिनचर्या सुनाती।

मां अकसर मुझे छेड़ती हुई कहती, अब तो तुम इस कप से चाय पीना छोड़ दो, अब तुम बड़ी हो गई हो। क्या इस कप को अपने ससुराल भी ले जाओगी? क्या वहां भी इसी कप से चाय पियोगी? और जब इसी कप से चाय पियोगी तो तुम्हारी सास क्या सोचेगी? मैं मां की बातें सुनकर मुस्कुराने लगती।

आज शादी को दो साल हो गए हैं और मेरा जन्मदिन है और मेरे हाथों में सबसे अनमोल तोहफा है वह स्टील का कप।

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