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लोक परलोक

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- सर्वोत्तम वर्मा

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कितनी मुश्किल हो रही है इन सलाखों से तुझे खाना देते।' बच्चों और पति का बचा-खुचा सब एक पॉलीथीन में डालकर उन्होंने उस भिखारिन के फैले हुए आँच में डालकर कहा, 'सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। अब देखो, लालू को ही। क्या वे भी इन भिखारियों से रेलवे को मुक्त करा सके? वह तो हृदय में दान-पुण्य है, तभी तो हम इन्हें देकर खुश हो लेते हैं वरना भूखे मर जाएँ ये बेचारे।'

उनके पति हँस पड़े, बोले 'मेमसाब, अपना जूठा लेफ्टओवर देना दान-पुण्य नहीं होता। खुद भूखे रहकर दूसरे को अपना खाना देना दान होता है। उसी की महिमा है।

'आप अपनी फिलॉसफी अपने पास रखिए। अगर उससे मैं आपका घर चलाती होती तो बच्चे इसकी तरह भीख माँग रहे होते। वह तो मैं ही हूँ जो इत्ते से में दूध मलाई खिला रही हूँ।'
  अब देखो, लालू को ही। क्या वे भी इन भिखारियों से रेलवे को मुक्त करा सके? वह तो हृदय में दान-पुण्य है, तभी तो हम इन्हें देकर खुश हो लेते हैं वरना भूखे मर जाएँ ये बेचारे।'      


ट्रेन चलने का हूटर दे रही थी सो वे अपनी बर्थ पर पसर के बैठ गईं तभी खिड़की में उस भिखारिन का चेहरा दिखा, जोर से चीखी, 'उतने से पेट नहीं भरा? फिर आ गई माँगने।'

ट्रेन सरकने लगी थी। भिखारिन के एक हाथ में वही पॉलीथीन थी और दूसरा वह सलाखों के पार भीतर ला रही थी, बोली, 'माँ, जूठा खा-खाकर लोक तो बिगाड़ रही हूँ पर परलोक नहीं बिगाड़ूँगी। इसे रखो, खाने के साथ आ गई थी।'

स्पीड लेती ट्रेन के झटके से उसका हाथ हिला और खट्ट से चीज उनकी बर्थ पर गिरी वह थी प्रथम मिलन की रात्रि को पति की दी हुई हीरे की अँगूठी, होगी कोई अट्ठारह बीस हजार की।

उन्होंने भिखारिन को प्लेटफार्म पर गिरते देखा ही नहीं, दहाड़कर पति से बोलीं - 'कितनी बार कहा है दुबली हो गई हूँ, अँगूठी ढीली हो गई है। मोटी तो अब क्या हो सकूँगी, उसे कटवाकर छोटी करा दो।'

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