चन्द्रा र. देवत
पान की दुकान पर स्कूटर रोका और पानवाले को पान लगाने को कहा। भीड़ तो नहीं थी फिर भी काफी लोग थे। तभी ध्यान गया पास की गली से हाथी चला आ रहा था। पीछे कुछ बच्चे भी थे, उत्सुक-प्रसन्न। हाथी जैसे विशालकाय प्राणी के एकदम निकट पहुँचकर तो तनिक भय-सा लगता है, शायद अपने छोटेपन का अहसास होता है, फिर भी यह प्राणी दोस्ताना और सुहावना लगता है। सभी देख रहे थे प्रसन्न-वदन।
नजदीक आया तो जेब से एक रुपए का सिक्का निकालकर उसकी सूँड की ओर बढ़ा दिया। प्रशिक्षित हाथी ने सिक्का ऊपर महावत की ओर बढ़ा दिया। सिर्फ एक रुपया देख महावत ने अंटी में रखते हुए मुँह बनाया, "क्या साब! सिरफ एक रुपल्ली? पाँच रुपया तो देते! गजानन महाराज हैं।"
लोगों की नजरें साब की ओर घूमीं। उनसे तो माँगा नहीं गया तो शर्मिन्दा क्यों हों? मजा लें न!
साहब को बुरा लगा। दानदाता ही क्यों श्रद्धालु हो?तुरंत बोले,
"तो तू क्यों उनकी गर्दन पर सवार है? नीचे आ! इनके पैरों में।"
सबकी हँसी फूट पड़ी। भीड़ हमेशा विजेता के साथ होती है। खिसियाया महावत कुड़कुड़ाता हाथी को मोड़कर आगे चल दिया। चलो, रुपए तक की श्रद्धा तो भुना ही ली।