अस्पताल के सामने एक झुग्गी में अतिवृद्ध बुढ़िया और अधेड़ पुत्र। मैंने गौर से देखा। उसने हरा कपड़ा फकीरी ढंग से बाँध रखा था। गले में माला। एक धूपदान उसमें लोबान। आते-जातों के सामने खड़ा हो जाता। श्रद्धा से लोग जो देते ले लेता। मैंने उसे फुरसत के मौके पर टोका- 'मैं मुँह देखकर बता सकता हूँ कि तुम कौन हो, कहाँ से आए हो। मैं पैसा भी दूँगा, पर सच बोलना। तुम अमुक तहसील, जिले के हो, जूता पॉलिश करते थे।
वह गौर से मुझे देखने लगा- 'आपको मैं सूरत से पहचान रहा हूँ, पर मेरी हकीकत किसी को न बताना। घर से बच्चों ने निकाल दिया। कौन सी जात-धर्म। सबसे बड़ा धरम भूख। पेट की आग बुझाना। वहाँ रहता तो माँ का भी गला दबा देते। उसे ले आया। उज्जैन तीरथराज, यहाँ खाने लायक मिल जाता है।'
मैं उसकी व्यथा से द्रवित हो गया और सिक्का देकर बढ़ गया। उसने आसपास मोर छाला (पंख) अवश्य घुमा दिया।