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स्मृतियों के आँगन में

मंगला रामचन्द्रन

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बारिश के बाद बक्सों, अलमारी के कपड़ों व अन्य वस्तुओं को धूप दिखाना आवश्यक हो गया था। एक दीवार तो इतनी तर हो गई थी कि पानी दीवार से उतरकर फर्श पर फैल रहा था। उस दीवार से लगाकर एक बड़ा सूटकेस वहाँ से हटाना जरूरी था। किसी तरह खींचकर सूखी जगह ले आई और खोलकर अनुमान लगाना चाह रही थी।

सूटकेस के अंदर फोटुओं के अनेक एल्बम रखे थे, जिन्हें देखकर एक पल को दिल धक-से रह गया। ओह! उनमें कितनी-कितनी स्मृतियाँ बंद हैं, सब सही-सलामत होना चाहिए। मन में एक अव्यवक्त सा तूफान दबाए एक के बाद एक एल्बम निकाल रही थी।

अपने स्कूली दिनों का एल्बम हाथ में आया। कुछ नम सा कुछ पुरानेपन के कारण कागज का भुरभुरापन हाथों में अजीब-सा एहसास पैदा कर रहा था। उसके पृष्ठ पलटते हुए मेरी नजर गड़कर रह गई। उस पृष्ठ पर दो फोटो थे। एक में एक छोटी लड़की फ्रॉक पर दुपट्‍टे को साड़ी की तरह लपेटे हुए और दूसरे में एक किशोरी वधू के वेश में थी।

वह वधू मैं ही थी। 'काबुलीवाला' कहानी के नाट्‍य रूपांतर की मिनी, जो तब बड़ी हो जाती है और ससुराल जाने वाली है। नाटक के प्रारंभ में नन्ही मिनी काबुलीवाला और उसके झोले से डरती थी और छिप जाया करती थी। पर धीरे-धीरे उस कद्दावर पठान की घनी दाढ़ी-मूछों में छुपी उजली मुस्कान और निश्चल आँखें उस मिनी के साथ एक अनंत स्नेह-सूत्र में बाँध देती है।

'काबुलीवाला' का यह पात्र मेरे दिल के करीब था। स्टेज पर मेरी उपस्थिति केवल पाँच मिनट की थी, पर रिहर्सल के दौरान भी उस लंबे-चौड़े पठान का अफगानिस्तान में छोड़ आए अपनी बेटी को याद कर रोना देखकर दिल में टीस उठती थी।

उस वर्ष गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का 'काबुलीवाला' कुछ अधिक चर्चा में रहा। पूरे स्कूल में इस नाटक को लेकर एक उत्सुकता, उत्तेजना चारों तरफ थी। सारे पात्रों का अभिनय इतना जीवंत था कि गुरुदेव की कहानी मंज पर जी उठी।

एक ऊँचा, पूरा हट्‍टा-कट्‍टा पठान सरहद पार से अपने देश के उत्पाद भारत में बेचने आता है ताकि अपनी बेटी के विवाह के लिए कुछ पैसा जमा कर सके। भारत आकर अपनी बेटी सदृश मिनी से बहुत कोमल आत्मीयता से जुड़ जाता है। कहीं से भी उसका स्वभाव बाहरी या शारीरिक बनावट से मेल खाता नहीं लगता।

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उसके हाथ से खून हो जाता है। वह जेल की सजा भी काटता है। जेल से छूटकर मिनी से मिलने आता है। वहीं बच्ची की जगह किशोरी मिनी को वधू के वेश में देखकर देश में छोड़ आए अपनी बेटी के बड़े होने का एहसास एक झटके की तरह, मन में एक बिजली कौंधने की तरह महसूस करता है। अश्रुपूरित नयनों से हिचक-हिचककर रोते हुए उस कद्दावर पठान की लाचारी दर्शकों से सही नहीं जाती और नयनों की कोरों को भिगो देती है।

आज एल्बम के इन दो फोटुओं को देखते हुए एक बार पूरा नाटक मेरी आँखों के सामने सजीव हो गया। मेरी गोद में वह एल्बम पड़ा है, सामने टेबल पर अखबार, जिसके मुखपृष्ठ पर एक पलटन सामने लायक बड़े हर्फों में अफगानिस्तान में युद्ध की खबर का ब्योरा। अखबार और दूरदर्शन में बार-बार काबुल, कंधार का नाम पढ़-सुनकर व उनसे संबंधित फोटुओं को देखकर एक तलब उठती। अपने उस पठान दोस्त 'काबुलीवाला' को आँखें ढूँढतीं।

युद्ध में रत आज का अफगानिस्तान कहीं से भी उस अफगानिस्तान से मेल खाता नहीं लगता। बारिश ने एल्बम का उतना नुकसान नहीं किया, पर निश्चित ही युद्ध ने कर दिया। वैसे युद्ध जैसे गंभीर, भारी-भरकम विषय पर सोचने-समझने, बोलने-लिखने वाले विद्वान ही उसे समझ सकते हैं। मेरे जैसे आम इन्सान तो बस यही खोज रहे हैं कि घनी दाढ़ी-मूँछों में, पठानी सूट पहने इस भीड़ में मेरा काबुलीवाला कहाँ है? क्या वह कभी मिलेगा? या एल्बम के इन फोटुओं की तरह स्मृति-शेष रह जाएगा?

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