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(द्वितीया तिथि)
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तस्‍मै श्रीगुरूवे नम:

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हमें फॉलो करें तस्‍मै श्रीगुरूवे नम:
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- भीकशर्म
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धन मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्में
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम्।

यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो, सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तारित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किन्तु फिर भी गुरु के श्रीचरणों यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ? श्री आदि शंकराचार्य से अपने इस एक श्लोक में गुरु की महिमा एवं महत्ता के बारे में सब कुछ कह दिया।

गुरुकाश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न सशय:।

'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। अत: हम कह सकते हैं कि गुरु वह प्रकाश है, जो हमें अज्ञान से ज्ञान, अनीति से न‍ीति, दुर्गुण से सद्‍गुण, विनाश से कल्याण, शंका से संतुष्टि, घमंड से विनम्रता और पशुत्व से मानव बनने का मार्ग दिखाता है।

गुरु के बिना जीवन अधूरा है। शास्त्रों के अनुसार निगुरे को कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता, न ही उसे अपने द्वारा किए गए पुण्यों का संपूर्ण फल ही प्राप्त होता है।

वेद, शास्त्र, पुराण, मंत्र, यंत्र विद्या आदि बातें गुरुतत्व न जानने वाले भ्रांत चित्त वाले जीवों को पथभ्रष्ट करने वाली हैं और उनके लिए जप, तप, व्रत, तीर्थ, यज्ञ, ज्ञान से सब व्यर्थ हो जाते हैं।

शास्त्रों में कहा गया है कि सर्वतीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है, वह फल गुरु के चरणामृत की एक बूँद से प्राप्त होने वाले फल का एक हजारवाँ हिस्सा मात्र है।

गुरु और ईश्वर : गुरु भक्ति और ईश्वर भक्ति में कोई भेद नहीं होते हुए भी गुरु को परमेश्वर से ऊँचे स्थान पर रखा गया है, क्यों‍कि गुरु के ज्ञान के बिना वह सर्वव्याप्त परमात्मा भी अज्ञात है। कबीर दासजी ने गुरू की महीमा का बखान करते हुए कहा है कि

गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।

शिव भगवान स्वयं कहते हैं-
यो गुरु: स शिव: प्रोक्तो य: शिव: स गुरुस्मृत:
अर्थात जो गुरु हैं वे ही शिव हैं, जो शिव हैं वे ही गुरु हैं।

गुरू को साक्षात परब्रह्म की संज्ञा दी गई है।
गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरूर देवो महेश्वराय।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै ‍श्री गुरुवे नम:।

गुरु और शिष्य : गुरु एक परिवर्तनकारी बल है। जहाँ गुरु की कृपा है, वहाँ विजय है। गुरु-शिष्य का संबंध तर्क के बजाय आस्था, श्रद्धा और भक्ति पर केंद्रित होता है। भावना का उफान या उत्तेजना गुरु भक्ति नहीं है। भक्ति का आशय समर्पण है। शिष्य का गुरु के प्रति जितना समर्पण होगा, उतना ही गुरु-शिष्य का संबंध प्रगाढ़ होगा। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह गुरु का चयन करते समय तर्क-वितर्क, सत्य-असत्य जैसे तमाम पहलुओं को अच्छी तरह परखे। मन में कोई संशय बाकी नहीं रहना चाहिए, क्योंकि समर्पण के अभाव कें गुरु भक्ति निरर्थक है।

प्रमुख शिष्य और उनके गुरु

श्रीराम : गुरु वशिष्ठ
श्री कृष्ण : महर्षि सांदीपनि
आरु‍‍णि : धौम्य ऋषि
उपमन्यु : धौम्य ऋषि
संत एकनाथ : श्री जनार्दन स्वामी
स्वामी विवेकानन्द : स्वामी रामकृष्ण परमहंस
छत्रपति शिवाजी : संत रामदास
आदि शंकराचार्य : श्री गोविंदाचार्य

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