गीता सार : 3. शांति और प्रसन्नता- 11
- अनिल विद्यालंकार
मनुष्य स्वाभाविक रूप से सुख को पाना और दु:ख से बचना चाहता है। मनुष्य को सुख तब मिलता है, जब उसकी इन्द्रियों का संपर्क उनके विषयों से हो। पर यह संपर्क हमेशा अस्थायी होता है इसलिए यह परिणाम में दु:खदायी ही होता है।
इन्द्रियों के सुखों की प्रकृति ही ऐसी है कि उनसे मनुष्य को स्थायी संतोष कभी नहीं मिल सकता इसलिए उसका मन सदा अशांत रहता है। शांति के बिना मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता। यदि मनुष्य के पास संसार की सारी संपत्ति हो तो भी अशांत मन वाले मनुष्य को बार-बार हताशा और दु:ख का ही अनुभव होता रहेगा।
दूसरी ओर शांत मन वाला व्यक्ति बहुत साधारण परिस्थितियों में भी प्रसन्न रह सकता है। उसे प्रसन्न होने के लिए किसी तेज उत्तेजना की जरूरत नहीं पड़ती।
गीता कहती है कि हमारे अंदर ही अक्षय शांति और अक्षय प्रसन्नता का स्रोत विद्यमान है। वहां पहुंचने के लिए आवश्यक है कि मन को इन्द्रियों से हटाकर अंदर की ओर ध्यान में लगाया जाए।