गंगा नदी की उद्भव कथा
शिव का हिमालय और गंगा से घनिष्ठ संबंध है और गंगा से उनके संबंध की कथा से लोकप्रिय चित्रांकन बड़ा समृद्ध हुआ है। हिंदुओं के लिए समस्त जल, चाहे वह सागर हो या नदी, झील या वर्षाजल, जीवन का प्रतीक है और उसकी प्रकृति दैवी मानी जाती है। इस संदर्भ में प्रमुख हैं तीन पवित्र नदियाँ- गंगा, यमुना और काल्पनिक सरस्वती। इनमें से पहली नदी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
चूँकि गंगा स्त्रीलिंग हैं, इसलिए उसे लंबे केशों वाली महिला के रूप में अंकित किया जाता है। देवी के रूप में गंगा उन सबके पाप धो देती है जो इतने भाग्यशाली हों कि उनकी भस्म उसके पवित्र जल में प्रवाहित की जाए। ब्रह्मवैवर्त पुराण में गंगा को संबोधित करने वाले एक पद में स्वयं शिव कहते हैं- 'पृथ्वी पर लाखों जन्म-जन्मान्तर के दौरान एक पापी जो पाप के पहाड़ जुटा लेता है, गंगा के एक पवित्र स्पर्श मात्र से लुप्त हो जाता है।
जो भी व्यक्ति इस पवित्र जल से आर्द्र हवा में साँस भी ले लेगा, वह निष्कलंक हो जाएगा।' विश्वास किया जाता है कि गंगा के दिव्य शरीर के स्पर्श मात्र से हर व्यक्ति पवित्र हो जाता है। भारतीय देवकथा में सर्वाधिक रंगीन कहानियाँ हैं उन परिस्थितियों के बारे में जिनमें गंगा स्वर्गलोक से उतरकर पृथ्वी पर आई थीं।
एक समय कुछ राक्षस थे जो ब्राह्मण ऋषि-मुनियों को तंग करते थे और उनके भजन-पूजा में बाधा डाला करते थे। जब उनका पीछा किया जाता था तो वे समुद्र में छिप जाते थे, मगर रात में फिर आकर सताया करते थे। एक बार ऋषियों ने ऋषि अगस्त्य से प्रार्थना की कि वे उनको राक्षसी प्रलोभन की यातना से मुक्त करें। उनकी सहायता के उद्देश्य से अगस्त्य ऋषि राक्षसों समेत समुद्र को पी गए।
इस प्रकार उन राक्षसों का अंत हो गया किंतु पृथ्वी जल से शून्य हो गई। तब मनुष्यों ने एक और ऋषि भगीरथ से प्रार्थना की कि वे सूखे की विपदा से उन्हें छुटकारा दिलाएँ। इतना बड़ा वरदान पाने के योग्य बनने के लिए भगीरथ ने तपस्या करने में एक हजार वर्ष बिता दिए और फिर ब्रह्मा के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे स्वर्गलोक की नदी गंगा को- जो आकाश की नक्षत्र धाराओं में से एक थी- पृथ्वी पर उतार दें।
भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने यथाशक्ति प्रयत्न करने का वचन दिया और कहा कि वे इस मामले में शिव से सहायता माँगेंगे। उन्होंने समझाया कि अगर स्वर्गलोक की वह महान नदी अपने पूरे वेग और समस्त जल के भार के साथ पृथ्वी पर गिरी तो भूकंप आ जाएँगे और उसके फलस्वरूप बहुत विध्वंस होगा। अतः किसी को उसके गिरने का आघात सहकर उसका धक्का कम करना होगा और यह काम शिव के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता।
भगीरथ उपवास और प्रार्थनाएँ करते रहे। समय आने पर शिव पसीजे। उन्होंने गंगा को अपनी धारा पृथ्वी पर गिराने दी और उसके आघात को कम करने के लिए उन्होंने पृथ्वी और आकाश के बीच अपना सिर रख दिया। स्वर्गलोक का जल तब उनके केशों से होकर हिमालय में बड़े सुचारु रूप से बहने लगा और वहाँ से भारतीय मैदानों में पहुँचा जहाँ वह समृद्धि, स्वर्गलोक के आशीर्वाद और पापों से मुक्ति लेकर आया।
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