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अवश्य पढ़ें गीता के मुख्य विचारों का सारांश-9

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अनिल विद्यालंकार

गीता श्लोक

गीता में कुल 700 श्लोक हैं। इनमें से हमने सबसे प्रमुख विषयों पर 150 श्लोकों का यहां चयन किया है। प्रत्येक विषय पर अलग-अलग अध्यायों से श्लोक लिए गए हैं और उन्हें ऐसे क्रम में रखा गया है जिससे उन्हें समझने में आसानी हो। इन 150 श्लोकों में प्रस्तुत विचारों का सार नीचे दिया गया है।


1. आत्मा और शरीर
 
गीता के अनुसार संसार के प्रत्येक प्राणी में परमात्मा ही प्रकट हो रहा है। वही एक विश्वव्यापी चैतन्य सभी प्राणियों में कर्ता और भोक्ता के रूप में काम कर रहा है। इसलिए सबसे गहरे स्तर पर व्यक्ति की आत्मा की अलग से सत्ता नहीं है, पर सतही स्तर पर हर व्यक्ति की अपनी अलग पहचान है। जब हम 'आत्मा' की बात करते हैं तो हमारा आशय किसी विशेष शरीर से जुड़ी चेतना से होता है। बाहर से हम अलग-अलग व्यक्तियों की पहचान उनके अलग-अलग शरीरों से करते हैं। अगर हम क और ख में अंतर कर उन्हें पहचान सकते हैं, तो यह उनके अलग दिखने वाले शरीरों के ही कारण है। 
 
वास्तव में हमारे लिए क और ख के शरीर ही क और ख हैं किंतु अंदर से सभी व्यक्ति अपने आपको अपने मन और अहंकार की गतिविधियों और अपने चित्त में उठने वाली अनुभूतियों के आधार पर जानते हैं। उनकी इंद्रियों और मन ने जो भी जानकारी एकत्रित की है उससे उनके अपने बारे में बिम्ब बने हैं और वे बिम्ब उनके अहंकार के चारों ओर बुने हुए हैं।

गीता के अनुसार इन्द्रियों, मन और अहंकार का यह कार्य भी प्रकृति ही द्वारा किया जा रहा है। इस गतिविधि के बीच में उन सबके पीछे एक व्यक्ति के होने का भाव उदित होता है। यदि इन्द्रियों, मन और अहंकार को सर्वथा शांत कर दिया जाए तो उस अवस्था में एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से अलग कर देख सकने का कोई आधार नहीं होगा। इस प्रकार सतही स्तर पर इस संसार में असंख्य व्यक्ति रहते प्रतीत हो रहे हैं, पर गहरे स्तर पर वही एक चैतन्य उन सभी में अभिव्यक्त हो रहा है। 
 
कोई एक चेतन तत्व है, जो हमारे शरीर में रहकर उसकी सभी गतिविधियों को संचालित करता है। सबसे गहरे स्तर पर रहने वाला वह तत्व शरीर में जो कुछ भी होता है उससे सदा अप्रभावित रहता है। यह चेतन तत्व सदा ही इतिहास के परे रहता है। यद्यपि यह तत्व संसार में जो कुछ भी हो रहा है उसे नियंत्रित कर रहा है, पर यह स्वयं संसार की घटनाओं से अछूता है। यह तत्व शुद्ध चैतन्य है। इस प्रकार चैतन्य में कोई इतिहास नहीं है, केवल पदार्थ में इतिहास है। यही चैतन्य हमारे शरीर के अंदर सीमित हो जाने पर हमारी आत्मा कहलाता है। शरीर की मृत्यु पर चैतन्यस्वरूप आत्मा वर्तमान शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है। 
 
'मृत्यु के बाद मेरा क्या होगा?' यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक है। किंतु इस प्रश्न में 'मेरा' शब्द उस शरीर की ओर संकेत कर रहा है, जो प्रति क्षण बदल रहा है। मेरी मृत्यु के बाद जो कुछ भी होगा, वह उसी को तो होगा जिसने मेरे जन्म के समय वह शरीर धारण किया था जिसे मैं अपना शरीर कहता आया हूं। अगर हम अपने जन्म के पहले से विद्यमान उस तत्व को जान लें तो फिर यह प्रश्न ही नहीं रहता कि मृत्यु के बाद मेरा क्या होगा, क्योंकि वही एक अपरिवर्तनशील चैतन्य सभी प्राणियों के शरीरों में अपने आपको अभिव्यक्त कर रहा है।
 
जारी
 

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