मालवा में यह कहावत प्रचलित है- 'मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर', जो इस क्षेत्र की मिट्टी की उर्वरा शक्ति और खाद्यान्नों की संपन्नता की ओर संकेत करती है। मालवा और निमाड़ में भारी मात्रा में कपास और अफीम उत्पादित होती थी। कपास के निर्यात को रोकने के लिए इंदौर में 1 दशक में ही 5 कपड़ा मिलें स्थापित हो गई थीं। इन मिलों को श्रेष्ठ किस्म का कपास मिल सके, यह आवश्यक था, क्योंकि मिलों को इंग्लैंड के उन्नत वस्त्र उद्योग से प्रतिस्पर्धा में टिकना था।
होलकर राज्य ने अपनी ओर से कोई पौध शोध संस्थान कायम नहीं किया, किंतु महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) ने तत्कालीन रेजीडेन्ट लेफ्टीनेंट कर्नल सर डी.बी. ब्लेकवे से इस प्रकार का शोध संस्थान भारत सरकार की ओर से कायम करवाने का अनुरोध किया। रेजीडेन्ट ने इस मामले में काफी रुचि ली और मिस्टर हार्वर्ड की सहायता से पौध-शोध संस्थान इंदौर में कायम किए जाने हेतु एक विस्तृत योजना तैयार की। रेजीडेन्ट की अनुशंसा के साथ वह भारत के गवर्नर जनरल को अनुमोदित हेतु 1921 में भेजी गई। यह योजना बहुत अधिक खर्चीली थी और इसीलिए भारत सरकार ने प्रस्तावित व्यय को अस्वीकार कर दिया।
सेंट्रल इंडिया की तमाम रियासतों ने इस संस्थान को आर्थिक अनुदान देने का वचन दिया था अत: श्री हार्वर्ड ने यह प्रयास किया कि इन रियासतों से मिलने वाले अनुदान की राशि बढ़वा ली जाए, किंतु उनका यह प्रयास भी असफल रहा। रियासतों ने अधिक धन देने से इंकार कर दिया।
महाराजा होलकर इस संस्थान को कायम करवाने के लिए कटिबद्ध थे अत: उनके आग्रह पर श्री हार्वर्ड ने अपनी मूल योजना में परिवर्तन किया जिसमें होलकर राज्य ने 99 वर्ष की लीज पर 300 एकड़ भूमि संस्थान को देने का आश्वासन दिया था। इस प्रस्ताव को भारत सरकार की अनुमति मिल गई।
इस संस्थान का उद्देश्य मूलत: कपास की नई व उन्नत किस्मों का विकास करना था। इसीलिए 'इंडियन कॉटन कमेटी' ने इस संस्थान की स्थापना हेतु 2 लाख रु. देने स्वीकार किए। यह राशि बहुत अधिक नहीं थी, क्योंकि संस्था के अधिकारियों व कर्मचारियों के वार्षिक वेतन आदि पर ही 1,29,000 रु. के व्यय का अनुमान लगाया गया था।
सेंट्रल इंडिया की तमाम रियासतों से 32,000 रु. का वार्षिक अनुदान इस संस्था को मिलना था, शेष राशि कॉटन कमेटी देने को तैयार हो गई।
डेली कॉलेज के उत्तर में होलकर दरबार ने 300 एकड़ भूमि उदारतापूर्वक इस संस्थान को 99 वर्ष की लीज पर दे दी। 1924 में विधिवत यहां पौध संस्थान कायम हो गया, जो सारे देश में अपने किस्म का पहला संस्थान था। इस संस्थान में कपास व अन्य कृषि उपजों पर शोध कार्य प्रारंभ हुआ। संस्था की सदस्य रियासतों के कृषि अधिकारियों व कृषकों को भी यहां बुलाकर प्रशिक्षित किया जाता था। उन्नत बीजों व विभिन्न प्रकार की पौध बीमारियों की जानकारी इस संस्थान से संपूर्ण मालवा में प्रसारित की जाती थी। होलकर राज्य द्वारा 300 एकड़ भूमि तो दी गई थी, 10,000 रु. प्रतिवर्ष का आर्थिक अनुदान भी दिया जाता रहा। यही संस्था आगे चलकर कृषि महाविद्यालय के रूप में परिणित हो गई।