Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मालवा की होली

हमें फॉलो करें मालवा की होली
webdunia

अपना इंदौर

जावरा से झाबुआ जाते समय रास्ते में जंगल, भील, जुलाहे, रांगड़े लोगों की बस्ती से जाना होता है, किंतु रास्ते में डरने जैसी बात नहीं थी। महिदपुर की लड़ाई हो जाने पर यहां सब दूर छोटे-बड़े राजाओं को आनंद हुआ।, लूटमार बंद हुई और प्रजा सुखी हो गई। रास्ते में रतलाम जैसा बड़ा नगर पार कर हम पांचवें या छठे दिन झाबुआ पहुंचे। वहां देखा तो मेजर बार्थविक साहब स्थानीय भीलों एवं आदिवासी पुरुष एवं महिलाओं के साथ चक्राकार नाचते हुए डांडिया खेल रहे थे। मुझे (दादोबा पांडुरंग) देखते ही वे कुछ शरमाए। मेरा हाथ थामे उन्होंने कहा, 'मुझे इन आदिवासियों के साथ खेलते हुए देखकर तुम्हें अचंभा लगा होगा।' मैंने कहा- हां, कुछ लगा जरूर।' तब वे बोले- 'इन आदिवासियों की भावनाओं का हमें सम्मान करना चाहिए।'
 
मालवा में फागुन मास मुझे बड़ा आनंददायी लगा। चहुंओर अफीम के खेत लाल, सफेद एवं पीले फूलों से ढंके हुए थे। उस कारण संपूर्ण प्रदेश ही चहुंओर, जहां नजर डालें, वहां बाग ही बाग दिखते हैं। उन्हें यहां 'गुल्लाला' कहते हैं। माघ मास से ही इन खेतों में महिलाएं एवं पुरुष काम करते हैं। पानी छिड़कना, अफीम के डोडों में चीरा देना, सुबह-शाम उनमें से निकला चीका खुरेदकर मिट्टी के पात्रों में जमा करना आदि, यही अफीम होती है। घर ले जाकर उसकी चक्की, बट्टी बनाते हैं। मैंने भी खाई थी। अच्छी लगती है, किंतु उससे नशा आने के कारण ज्यादा नहीं खाते। मुझे याद है कि यहां की होली पूर्णिमा से लेकर रंगपंचमी तक खेली जाती है।
 
हम जावरा पहुंचे तब होली खेलना बंद नहीं हुआ था। हमारे नवाब साहब और उनके साथ हिन्दू तथा मुसलमान सरकारी अधिकारी लोग खूब रंगे हुए थे। उन्होंने मुझे ढूंढकर, पकड़कर मेरे ही नहाने के पत्‍थर पर बिठाया और मुझ पर खूब रंग उंडेला। नवाब साहब भी कहते रहे- 'यह क्या पंडतजी, तुम्हारी होली और तुम्हारे बदन पर रंग नहीं' और हंसते-हंसते मेरे ऊपर रंगों की गागर उंडेलते रहे।
 
नवाब साहब होलकर राज्य के आधीन होने से, चातुर्मास समाप्ति पर उन्हें सम्मान देने हेतु, दशहरे पर इंदौर जाना होता था। नवाब साहब के साथ मैं इंदौर पहुंचा। चार-पांच दिनों बाद दशहरा था। इंदौर में दशहरे का बड़ा समारोह होता था।
 
आसपास से महू तथा नीमच छावनियों के अंगरेज अफसर वह तमाशा देखने आते थे। मैं इंदौर में नवाब गफूर खां की छावनी में रुका था। इंदौर पहुंचते ही वहां के रेजिडेंट जान बक्स से मिला। यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। बक्स साहब मुझे बड़े सभ्य एवं शांत स्वभाव के लगे। उन्होंने मुझसे अपने और नवाब साहब की अंगरेजी पढ़ाई के संबंध में पूछा। मैंने कहा- 'ये राजा लोग धनिक हैं। वे श्रम लेकर अध्ययन करेंगे, ऐसा मुझे नहीं लगता।। उनकी मर्जी से वे जितना अध्ययन करते हैं, उतना मैं अवश्य करवा रहा हूं।' बड़े साहब ने कहा- 'वैसा ही करना होगा। अधिक सख्ती हो ही नहीं सकती थी।' फिर एक दिन बड़े साहब और उनकी मेमसाहब ने नवाब साहब से कुछ पढ़वाया, अर्थ पूछा, उनकी अंगरेजी लिखावट देखी और उत्तेजन हेतु शाबाशी देते हुए कह- 'देखो नवाब साहब, आप थोड़े दिन में अच्‍छे से सीखे। तुम्हारे उस्तादजी बड़े होशियार हैं। आप अच्छे सीखोगे तो हम लाट साहेब को आपके वास्ते बड़ी सिफारिश करेंगे।
 
आज दशहरे की धूमधाम थी। तीसरे पहर से ही घुड़सवार, ऊंटसवार, हाथी, चहुंओर जमा होने लगे। संध्या समय को बड़े साहब और दो-चार दूसरे साहब महाराजा हरिराव होलकर को लिवाने राजवाड़े गए (ऐसा मुझे लगता है)। आगे महाराजा की सवारी हाथी के हौदे में। साथ में बड़े साहब और पीछे दूसरे साहब लोग। दरबारी लोगों की सवारियां, चोपदार, हलकारे आदि हजारों लोग जमा हुए। आगे-पीछे सवार, हाथी, लश्कर सेना के लोगों की भीड़ छावनी में बड़े साहब के बंगले के सामने जमा हो गई। वहां एक पाड़ा पहले ही बंधा हुआ थ। उसे सब लोग भालों से नोंचकर मारने लगे, तब वह अघोरी कर्म हाथी पर बैठे बड़े साहब और मेमसाहब देख न सके। वे अंदर बंगले में जा बैठे। वहां कुछ रक्तसिंचन कर, शमी वृक्ष की पूजा कर हरिराव महाराज एवं बड़े साहब पुन: हाथी पर और अन्य लोग घोड़ों पर या पालकी में बैठकर सरकारी बाड़े पर पहुंचे, वहीं दरबार हुआ। नवाब साहब 'मांजी साहब' को मुजरा करने महल में गए। उस भीड़ में मैं नहीं था। बाद में पानी, गुलाब, हार, गुच्छ देने पर सब लोग अपने-अपने स्थान लौट गए। दशहरे का ऐसा समारोह मैंने पहले कभी नहीं देखा था। -प्रस्तुति : बाल उर्ध्वरेषे
 
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

अनंतनाग में हिजबुल के शीर्ष कमांडर मौलवी समेत 3 आतंकी ढेर, अमरनाथ यात्रा को बनाना चाहते थे निशाना