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सन् 1915 में स्थापित हुई महाराष्ट्र साहित्य सभा

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अपना इंदौर

मालवा का प्रमुख नगर इंदौर 1818 ई. में होलकरों की राजधानी बना। इसके पूर्व राजधानी महे्श्वर थी। इंदौर में राजधानी स्थापित हो जाने के बाद अनेक महाराष्ट्रीयन परिवार इंदौर में आ बसे। स्कूलों में भी मराठी भाषा एक विषय के रूप में पढ़ाई जाने लगी। धीरे-धीरे मराठी अध्येताओं की संख्या नगर में बढ़ने लगी।
 
राजकुमार शिवाजी ने 1882 में पूना की ग्रंथल तेजक मंडली के माध्यम से यह घोषणा करवाई थी कि 'कादम्बनी' के अंतिम भाग का ज्यो व्यक्ति प्रतिस्पर्धात्मक रूप से सर्वश्रेष्ठ अनुवाद करेगा, उसे होलकर राज्य द्वारा 400 रु. का पुरस्कार दिया जाएगा। मंडली में प्राप्त कोई भी अनुवाद उस स्तर का नहीं था अत: मंडली की अनुशंसा पर वह पुरस्कार, दो व्यक्तियों, सर्वश्री गणेश शास्त्री लेले व वामन शास्त्री केमकर में बराबर-बराबर बांट दिया गया था।

साहित्यकारों को राजकीय प्रोत्साहन की यह परंपरा बराबर चलती रही। जिस वर्ष हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना हुई, उसी वर्ष 1915 में महाराजा ने 'महाराष्ट्र साहित्य सभा' की स्थापना की घोषणा की। दोनों संस्थाओं को राज्य की ओर से समान अनुदान दिए जाने की व्यवस्था की गई। 'महाराष्ट्र साहित्य सभा' आज भी अपने भवन में सुचारु रूप से संचालित है।
 
निश्चय ही 'महाराष्ट्र साहित्य सभा' की स्थापना से इंदौर के मराठी भाषी बुद्धिजीवियों में नवीन चेतना जागृत हुई। इस संस्था ने भी लेखकों के प्रोत्साहन व नवीन पुस्तकों के प्रकाशन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता व ख्याति अर्जित की थी।
 
1915 व 1924 के 9 वर्ष के अल्पकाल में ही इस संस्था ने 143 प्रकाशित पुस्तकों के लेखकों को 9,000 से भी अधिक धनराशि प्रदान की थी। लगभग इतनी ही राशि 41 पुस्तकों के उन लेखकों को दी गई थी, जिनकी पुस्तकों का प्रकाशन कार्य इस सभा के अधीन हुआ था। इन पुस्तकों में मराठी काव्य, दर्शन, शरीर विज्ञान आदि विषयों पर व कुछ पाठशालाओं में प्रचलित पाठ्य पुस्तकें थीं।
 
इंदौर मराठी साहित्यकारों का केंद्र बना
इंदौर 1818 ई. में होलकर राज्य की राजधानी बना। शासक वर्ग की भाषा मराठी थी, इसके अलावा प्रशासन व व्यापार, उद्योग-धंधों में भागीदारी करने के उद्देश्य से अनेक मराठी भाषी परिवार इंदौर में आ बसे। इंदौर नगर के खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा व भाषा सभी पर मराठी प्रभाव परिलक्षित होता है। एक बड़े मराठी भाषी समुदाय के इंदौर में बस जाने के कारण इस नगर में मराठी साहित्य का पठन-पाठन होने लगा, जिसने कुछ मराठी लेखकों को जन्म दिया।
 
जहां तक मराठी साहित्य के प्रकाशन का प्रश्न है, आधिकारिक रूप से कहा जा सकता है कि 1883 ई. में ही यहां से 'वृत्त-लहरी' नामक साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारंभ हो गया था। मराठी लेखकों में श्री विष्णु सोमनाथ सरवटे ऐसे प्रथम लेखक थे, जिनकी रचनाओं को प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त हुआ। संस्कृत ग्रंथों का मराठी अनुवाद कर श्री गोविंद बलवंत माकोडे ने मराठी भाषियों के मध्य बहुत ख्याति अर्जित की।
 
सरदार माधवराव किबे और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलाबाई किबे ने मराठी साहित्य के सृजन, प्रकाशन व संवर्द्धन के लिए अथक प्रयास किए। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सरदार किबे ने हिन्दी के प्रसार व समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण प्रयास किए थे।
 
महाराष्ट्र की संत परंपरा के महान संत तुकाराम के जीवन को अपनी लेखनी से लिपिबद्ध किया था इंदौर के श्री बालकृष्ण मल्हारहंस ने। नरेन्द्र शंकर राहेलकर ने अपनी विद्वत्तापूर्ण रचनाओं 'केशव सुत' व 'पुष्पांजलि' के कारण बहुत प्रसिद्धि पाई थी। अनंत सीताराम कालेने ने स्तरीय का प्रकाशन किया था।
 
विनायक हरि आप्टे ने 'माला' तथा अन्य मराठी रचनाओं के माध्यम से मराठी साहित्य को समृद्ध बनाया। यशवंत खांडेराव कुलकर्णी ने अपनी काव्य रचनाएं, मानस, भय पुष्प आदि को प्रकाशित करवाया। मराठी के महान कवि ताम्बे भी कुछ समय तक इंदौर में रहे।
 
आधुनिक समय के मराठी लेखकों व कवियों में श्री सीताराम काशीनाथ देव ने 'ज्ञानेश्वरी' का हिन्दी अनुवाद किया है। साथ ही आपने अनेक मराठी कविताओं की रचना भी की है। रामचंद्र अनंत कालेने ने मराठी गद्य व पद्य दोनों में साहित्य सृजन किया। श्री जी.डब्ल्यू. कवीश्वर ने मराठी में अनेक निबंध, उपन्यास व पुस्तकें लिखी हैं, जो नैतिक शास्त्र व दर्शन से संबंधित हैं।
 
मराठी जगत के प्रसिद्ध कवि अनंत पोद्दार, अनंत आठले, वसंत हाजरनवीस तथा के.एन. डांगे आदि सभी ने इंदौर में निवास किया है।
 
वसंत अनंत कालेले, बाबा डिके, माधव साठे व वसंत राशिनकर ऐसे नाम हैं, जो इंदौर के मराठी जगत को अपना योगदान देते रहे हैं।
 
मराठी समाचार पत्र, पत्रिकाएं व ग्रंथ मुख्य रूप से पूना से इंदौर पहुंचते थे। इंदौर के मराठी पाठकों की नब्ज पूना में थी। महाराजा शिवाजीराव होलकर को मानसिक रोगी सिद्ध करने का सुनियोजित षड्यंत्र रचा गया और तब पूना के अखबारों ने उनके विरुद्ध अनर्गल जहर उगला था। महाराजा चाहते थे कि इंदौर में ऐसा वातावरण निर्मिंत हो कि मराठी भाषी संगठित होकर साहित्य सेवा कर सकें।

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