मिट्टी की अस्मिता अक्षुण्ण है। चाहे देह हो या दिया उसकी अस्मिता मिटती नहीं।दिया टूट कर बिखर जाए,देह पंचभूत में विलय हो जाए लेकिन दीप्ति और स्मृति,दीये और देह की मिट्टी को मिटने नहीं देते। इसीलिए सुमनजी कह गए,
निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी, पिटी
हर बार बिखेरी गई किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी
इस अमिट मिट्टी को हमारे पुरखे बड़े कौशल से सहेज गए। इसके खिलौने बने और मंदिर तथा मूर्तियों से लेकर भव्य भवन बने।मिट्टी के इस शिल्प को टेराकोटा शिल्प कहा जाता है जिसके बारे में विपुल साहित्य भी है और साकार स्वरूप भी। टेराकोटा का आशय पकी हुई मिट्टी से है। यह इटालियन शब्द है।गीली मिट्टी को पकाकर जो उपादान निर्मित किए जाते हैं उन्हें टेराकोटा शिल्प के नाम से जाना जाता है।
संक्षेप में कहें तो मिस्र और मेसोपोटामिया से प्राप्त मृद भांड, मृण्य फलक और मृण्य मूर्तियां इनके आरंभिक उदाहरण हैं। कला के रूप में यह ईसा पूर्व सातवीं सदी में प्राचीन यूनान और रोम में प्रचलित थी। भारत में मध्य पाषाण काल, नव्य पाषाण काल, सिंधु और हड़प्पा सभ्यता से लेकर मौर्यकाल और गुप्तकाल तक और उसके आगे के काल तक इस मिट्टी की कला का क्रमबद्ध विकास दिखाई देता है।
मेहरगढ़ में जो वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है एक रंगीन बर्तन मिला है। यह नव पाषाण काल (3500 से 2800 ईसा पूर्व) का है। चौथी सदी में कानपुर के निकट भीतरगांव के मंदिर से लेकर बंगाल के विष्णुपुर के 18 वीं सदी के मंदिरों तक इस कला का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है तथा मध्यकाल में मिट्टी के बने अलंकृत फलक हमारी महान विरासत हैं जो विशेषकर बंगाल में बने तथा आधुनिक युग में उसके सुंदर उदाहरण राजस्थान के मोलेला गांव में मिलते हैं।
मोलेला में आठ सौ वर्षों से पूर्व के उदाहरण भी मिले हैं।इन फलकों पर नारी आकृतियां और धार्मिक प्रसंग उत्कीर्णित किए जाते थे।शुंग काल में विशेषकर कामुक युगल फलकों पर उत्कीर्णित किए गए।
बंगाल में उत्खनन में बांगड़,वीरभानपुर, चंद्रकेतुगढ़,तमलुक भरतपुर सहित ढीपी,राजबरीदंगा और मंगलकोट में टेराकोटा शिल्प मिले हैं। इनमें उत्कृष्टतम उदाहरण चंद्रकेतुगढ़ के हैं जो विभिन्न व्यक्तिगत संग्रहों और देश विदेश के विभिन्न संग्रहालयों में हैं।
चंद्रकेतुगढ़,कोलकाता से लगभग 34 किलोमीटर दूर है तथा यहां मौर्य युग से पूर्व के शिल्प मिले हैं जो दूसरी सदी ईसा पूर्व के हैं तथा यहां पाल सेन काल तक इनके निर्माण की परंपरा विद्यमान रही है।
मृण्मय कला के विशद उल्लेख हमारे वाग्मय में हैं। वेदों में इसके उल्लेख हैं तथा इसे शिल्पकर्म के रूप में जाना जाता रहा है।यह लोकशिल्प के रूप में भी प्रतिष्ठित हुआ। इसका सुंदर उदाहरण यक्ष यक्षी की मौर्यकालीन मिट्टी की मूर्तियां हैं। हड़प्पा काल के मिट्टी के शिल्प बहुतायत से मिले।
इसके बाद गंगा घाटी के स्थल मथुरा,अही छत्र,कौशांबी,राजघाट,घोसी, पाटलीपुत्र और श्रावस्ती से से बहुत शिल्प मिले। टेराकोटा शिल्प के विश्वप्रसिद्ध उदाहरण चीन के प्रथम सम्राट क्विन शी (221 ईसा पूर्व से 210 ईसा पूर्व) के समय के हैं। यह टेराकोटा शिल्प में निर्मित मानव देह के बराबर आठ हज़ार से अधिक सैनिकों की फौज है।
मिट्टी की इस महान रचाव यात्रा की कहानी अनंत है। यहां इसी रचाव के कुछ प्रतिनिधि उदाहरण प्रस्तुत हैं। इनमें सिंधु घाटी की सभ्यता में मिले उदाहरणों से लेकर हड़प्पा काल, मौर्य,शुंग और गुप्तकाल से लेकर आज के मोलेला ग्राम के शिल्प तो हैं ही चंद्रकेतुगढ़ की दिव्य अप्सराओं से लेकर बंगाल के मनभावन फलकों की झांकी भी है।
मिट्टी की महिमा इसी में है कि वह मिटे, मिट कर संवरे और अपने आपसे अपने आपको रच ले। मुझे सुमनजी फिर याद आ रहे हैं-
मिट्टी की महिमा मिटने में
मिट मिट हर बार संवरती है
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है
मिट्टी मिट्टी को रचती है...
समस्त चित्र साहित्यकार,इतिहासकार, संस्कृतिविद् नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के सौजन्य से....