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कान फेस्टिवल : फिल्मों के आईने में आतंक का डरावना चेहरा

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प्रज्ञा मिश्रा

शनिवार की दोपहर, कान शहर के क्रोसेट पर सीरिया की एक लड़की मिली। उसने कुछ पैसे मांगे, पैसे तो नहीं लेकिन वो खाना मिलने से भी खुश थी। ... उसका फोटो खींचने के लिए उससे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। लेकिन फेस्टिवल के आखिरी दिन इस दौर की सबसे बड़ी इंसानी त्रासदी का यह रूप इस साल फेस्टिवल की फिल्मों को फिर से दोहरा गया। 
 
फेस्टिवल के  शुरूआती दिन ही वैनेसा रेडग्रेव की फिल्म "सी सॉरोस" देखी।  यह डाक्यूमेंट्री फिल्म आउट ऑफ़ कम्पटीशन सेक्शन के तहत दिखाई... यह फिल्म रिफ्यूजी कैंप में रह रहे लोगों की हालत और यूनाइटेड किंगडम की जिम्मेदारी की बात तो करती है लेकिन यहां सबसे बड़ी बात है मानवीय अधिकारों की। वैनेसा रेडग्रेवे को पिछले ही साल शेक्स्पियर के नाटक रिचर्ड द थर्ड में मां का किरदार निभाते हुए देखा था, नाटक के मंच पर जिस बेहतरीन ढंग से उनका किरदार सामने आता है, उसी ढंग से इंसानी हक़ की बात करते हुए वैनेसा परदे पर दिखाई देती हैं। इतना ही नहीं लंदन में हो रहे उन प्रदर्शनों  में भी शामिल होती हैं जहां इन बेघर लोगों की, इनके हक़ की बात होती है। यह फिल्म उनकी पहली फिल्म है और कैमरा यह साफ़ दिखाता भी है। लेकिन फिर भी यह फिल्म अपनी बात पहुंचाने में कामयाब है 
 
इसके बाद अगले ही दिन हंगरी की फिल्म 'जुपिटर'स मून' देखी जो कम्पटीशन सेक्शन में है। यहां डॉक्टर स्टर्न हैं जो रिफ्यूजी कैंप में काम करते हैं।  और पैसे लेकर रिफ्यूजी को हॉस्पिटल ले जाते हैं क्योंकि वहां से कैंप से भागने के नए रास्ते खुलते हैं। एक दिन पुलिस की गोली से घायल लड़का आर्यन मिलता है जिसमें इस घटना के बाद उड़ने की ताकत आ गई है। और अब डॉक्टर इसके सहारे पैसे कमाने का प्लान बनाते हैं। फिल्म पूरी तरह रिफ्यूजी समस्या पर नहीं है और डायरेक्टर से इस बात पर बहुत बड़ी असहमति है कि आखिर में बम ब्लास्ट का क्या तुक था। लेकिन फिल्म उस इंसान की तकलीफ को दिखाती है जो अकेला नए शहर नए देश में है और जो हो रहा है उसको मान लेने के अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं है।  
 
माइकल हानाके की फिल्म हैप्पी एन्ड में कैले शहर दिखाया है जहां फ्रांस मेन लैंड और यू के बॉर्डर पर सबसे बड़ा रिफ्यूजी कैंप है जिसे जंगल के नाम से भी जाना जाता है। फिल्म के अंत में पार्टी के दौरान चंद रिफ्यूजी को लेकर जब परिवार का बेटा सामने आ खड़ा होता है तो परिवार के लोग उनके लिए एक अलग से टेबल भी लगवा देते हैं। और यह सीन बहुत कुछ कह जाता है। 
 
सही मायनों में क्या रिफ्यूजी समस्या का यह बेहतर हल नहीं हो सकता क्योंकि आखिर वो लोग अपना घर अपनी ज़िन्दगी सभी छोड़कर पहुंचे हैं। 
 
फेस्टिवल में अलग अलग सेक्शंस में कई फिल्में हैं लेकिन हर खांचे में आतंकवाद से जुडी कोई न कोई कहानी मौजूद है। और अगर फिल्में समाज को आईना दिखाती हैं तो इस समाज का चेहरा डरावना, भयावह, और खतरनाक है और ऐसी फिल्में इस बात को भूलने नहीं देती। 

 

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