Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

डेमन्स इन पैराडाइस : तमिल धरती की लड़ाई का सच

हमें फॉलो करें डेमन्स इन पैराडाइस : तमिल धरती की लड़ाई का सच
webdunia

प्रज्ञा मिश्रा

कान फिल्म फेस्टिवल से प्रज्ञा मिश्रा

 कान फिल्म फेस्टिवल 2017 के प्रेस स्क्रीनिंग टाइम टेबल में जब पहली बार कोई अपने इलाके का नाम देखा तो दुबारा देखने की जरूरत पड़ी, नाम था 'जूड रत्नम' और उनकी फिल्म है 'डेमन्स इन पैराडाइस'। यह फिल्म आउट ऑफ़ कम्पटीशन सेक्शन में दिखाई गई। जूड मूलतः श्रीलंका के हैं, तमिल हैं और इस फिल्म के जरिये उस कहानी को कह रहे हैं जो लोगों के अंदर तो मौजूद है लेकिन न कोई कह रहा है, न सुन रहा है। यह ऐसे घाव की कहानी है जिसकी मरहम पट्टी कोई नहीं कर रहा है। उसे बस छुपा दिया गया है।  
 
1983 में कोलंबो में तमिल लोगों के खिलाफ सरकार ने मोर्चा खोला, और उस वक़्त जूड पांच साल के थे, उस रात की याद से शुरू हुई यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म श्रीलंका के सिविल वॉर की कहानी उस नज़र से दिखने की कोशिश करती है, जो किसी भी ग्रुप से ताल्लुक नहीं रखती। 
श्रीलंका में तमिल लोगों के खिलाफ इस हमले में कई लोगों की जान गई , कई लोग (जिनमें रत्नम परिवार भी शामिल है) जान बचा कर भाग खड़े हुए और बाद में कई तमिल टाइगर बन गए। उस दौर में जब कोई मासूम निर्दोष लोगों को यूं ही मार रहा हो, तब हथियार न उठाने के लिए बहुत बड़ी हिम्मत चाहिए। और हमेशा यही वजह होती है कि भीड़ अचानक से हमारे और तुम्हारे खेमों में बंट जाती है।  
 
श्रीलंका में भी यही हुआ। तमिल टाइगर ने तमिल धरती के लिए आंदोलन शुरू किया और देखते देखते 16 ग्रुप बन गए जो सभी तमिल लोगों के हक़ के लिए लड़ रहे थे लेकिन आपस में उनके मतभेद भी कम नहीं थे। 
 
इस फिल्म में हम उन लोगों को देखते हैं, उनकी बातें सुनते हैं जो उस दौर में अलग-अलग ग्रुप में न सिर्फ शामिल थे, यह लोग बताते हैं कि किस तरह तमिल टाइगर सरे आम गद्दारों को गोली मार कर सजा देते थे, किस तरह दुश्मन (जो भी अपने ग्रुप का नहीं है) को ज़िंदा जला दिया जाता था, किस तरह वह खुद लगातार गोली चला रहे थे.... 
जूड रत्नम के परिवार के लोगों ने बताया कि किस तरह उन्होंने जान बचाई और क्यों उन्होंने तमिल आज़ादी की समर्थन किया। लेकिन आज कई लोग या तो ज़िंदा नहीं हैं या देश छोड़ कर चले गए हैं।  
 
फिल्म के आखिरी दौर में एक शाम सभी लोग जमा होते हैं जो भले ही अलग अलग ग्रुप के लिए लड़ रहे थे, और उनकी बातों से एक बात समझ आती है कि उस दौर में इस लड़ाई में आम लोगों को ही सबसे ज्यादा तकलीफ और मुश्किलें उठानी पड़ी, क्योंकि जितने भी ग्रुप थे सब धीरे-धीरे ख़तम हो गए। इसी शाम बातों में कहा जाता है कि तमिल समाज में एका नहीं था इस लिए आज़ादी की यह लड़ाई कामयाब नहीं हुई। 
 
लेकिन क्या इतने लोगों की मौत से भी इन लोगों पर कोई असर नहीं हुआ ? उस दौर में जहां तमिल धरती की आज़ादी के लिए लड़ाई शुरू हुई, अगर कोई भी तमिल इस बात से नाइत्तेफाकी रखता था तो मार दिया जाता था। क्या यही आज़ादी है? 
 
यह देखना खौफनाक है कि कोलंबो में रत्नम परिवार अपने पहनावे को बदल रहे थे कि तमिल दिखाई न दें, क्योंकि मार दिए जाएंगे। और कुछ समय बाद जाफना में जहां तमिल टाइगर का कंट्रोल था, वहां से कोई तमिल बच कर निकलना चाहे तो मार दिया जाएगा। फिल्म के अंत में जूड कहते हैं कि मैं छोटा था लेकिन अपने आसपास हो रहे अत्याचार को देखकर चाहता था कि बस अब तमिल टाइगर को ख़तम कर देना चाहिए, और उस वक़्त मैं एक बागी था। 
 
यह फिल्म न सिर्फ उस दौर को समझने की कोशिश करती है बल्कि उसका कारण और उसका असर दोनों तरफ क्या हुआ यह दिखाती है। यह डॉक्यूमेंट्री नहीं दस्तावेज है। 
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

कान्स में इन्हें कहा गया था, आप यहां आमंत्रित नहीं हैं