Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

देश को कोई बना भी रहा है क्या?

हमें फॉलो करें देश को कोई बना भी रहा है क्या?
SubratoND
- ज्वालाप्रसाद मिश्र

यदि आप पूछते कि देश को कौन बिगाड़ रहा है, तो शायद उत्तर देना ज्यादा आसान होता। सैकड़ों चेहरे जेहन में आ जाते जो मुल्क और इसकी संस्कृति को बर्बाद करने पर तुले हैं। पर क्या देश को कोई बना भी रहा है? यदि है, तो कौन है वह सिरफिरा? नेता, अफसर, व्यापारी, जनता, मीडिया, साहित्यकार, शिक्षक, छात्र, टी.वी., फिल्में जिधर भी नजर डालूँ, मुझे तो सब एक-से दिखाई देते हैं। कभी-कभी तो लगता है, देश में जो कुछ अच्छा था, वह 15 अगस्त '47 को रात के 12 बजे खत्म हो गया। मेरे वरिष्ठ मित्र हरिहरबख्स सिंह 'हरीश' क्रांतिकारी विचारों के खद्दरधारी युवा थे। 16 अगस्त को जब उन्हें साधारण सूती वस्त्रों में देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ था।

पूछने पर उन्होंने कहा, 'अब खादी की भूमिका नहीं रह गई। अब इसे भ्रष्ट लोग पहनेंगे। 'तब मैं आठवीं का छात्र था, सो उनकी बातें समझ न सका। पर क्या वे गलत थे?

आज भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोजगारी, चरित्रहीनता, काला धन, कामुकता, उच्छृंखलता, समलैंगिकता, निर्लज्जता, अपराध, तरह-तरह के माफिया, भ्रूण हत्या, जातिवाद, आतंकवाद, जनसंख्या विस्फोट- कौन सी ऐसी बुराई है जो निरंतर बढ़ती ही नहीं जा रही है? इक्के-दुक्के सीधे-सरल चने हैं भी तो वे क्या भाड़ फोड़ेंगे? आजादी के बीस वर्ष बाद 'धूमिल' ने जो लिखा था, वह आज और भी प्रासंगिक प्रतीत होता हैः

बीस साल बाद और
इस शहर में
सुनसान गलियों से
चोरों की तरह
गुजरते हुए
अपने आप से सवाल करता हूँ-
क्या आजादी सिर्फ
तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिसे एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब है?
निर्वाचित नहीं, चयनित लोग चाहिए

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi