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वंदे मातरम संस्कृत नहीं संस्कृति है

हमें फॉलो करें वंदे मातरम संस्कृत नहीं संस्कृति है
- डॉ बी.एस. भंडारी

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल गौर का कहना है, 'वंदे मातरम्‌' के गायन का अर्थ सिर्फ राष्ट्रभक्ति का गान नहीं, बल्कि उन आदर्शों और संकल्पों से अपने आपको नित्य प्रति जोड़ना है, जिन्होंने हमारे देश के स्वतंत्रता संघर्ष को अनुप्राणित किया था।' किंतु आजाद भारत के इस दौर में 'वंदे मातरम्‌' को लेकर कई विवाद खड़े हो गए हैं। लेखक एवं प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोजकुमार श्रीवास्तव ने 'वंदे मातरम्‌' नामक पुस्तक लिखकर इन भ्रमों का निराकरण करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत है इस क्रांति-गीत के साहित्येतिहासिक अध्ययन की एक छोटी-सी झलक-

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हाल के समय में कई स्वघोषित बुद्धिजीवी 'वंदे मातरम्‌' के लेखक बंकिमचंद्र को द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के जनक की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। ब्रुसेल्स में तीन वर्ष पहले हुए एक अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट सेमिनार में एक भारतीय प्रतिनिधि दल ने अपने पेपर में कहा कि हिन्दू राष्ट्र के सिद्धांत का पहला स्पष्ट प्रतिपादन बंकिमचंद्र चटर्जी ने बांग्ला भाषा में लिखे अपने उपन्यास ‘आनंद-म’ में किया। ‘वंदे मातरम्‌’ इस उपन्यास का अंग था। खालेद अहमद ने लिखा कि 'जिसने कुख्यात वंदे मातरम्‌लिखा उसका नाम बंकिमचन्द्र था। बंकिम के यहाँ शब्दशः मायने हैं क्रुकेड (धूर्त)।' देखने की बात यह है कि यह उस व्यक्ति के बारे में कहा जा रहा है जिसने 1874 में बंगदर्शन में लिखा है कि 'बंगाल अकेले हिन्दुओं की मिल्कियत नहीं है। पीढ़ियों से बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम साथ-साथ रहते आए हैं। आज दुर्भाग्यवश उनमें दूरी बढ़ रही है। सभी के हितार्थ मैं इन दोनों समुदायों में भाईचारे की पैरवी करता हूँ।' यदि बंकिमचंद्र मुस्लिम विरोधी होते तो अपने उपन्यास 'सीताराम' (1886) में एक पात्र से यह कहलवाते कि 'यदि तुम हिन्दू और मुसलमान को बराबर नहीं समझते तो हिन्दू और मुसलमान दोनों के द्वारा आवासित इस भूमि में अपने राज्य को सुरक्षित नहीं रख पाओगे। तुम्हारा अभिकल्पित धर्म राज्य पाप के शासन में अपघटित होकर रह जाएगा।' चूँकि यह लेख आनंद-मठ या बंकिम पर नहीं है, इसलिए इत्यलम्‌। लेकिन जो बात गौर करने की है, वह है एक पाकिस्तानी लेखक और एक भारतीय पक्ष के बंकिम के प्रति एक जैसे विचार।

अब इस बात पर आएँ कि क्या ‘वंदे मातरम्‌’ अँग्रेज-विरोधी नहीं था? हमारे नव बुद्धिजीवी इस गीत को आनंद-मठ में मुस्लिमों के विरुद्ध सक्रिय देखते हैं न कि अँगरेजों के विरुद्ध। लेकिन स्वयं अँग्रेजों को इस विषय में कोई शक नहीं था कि इस गीत का असल निशाना कौन थे।'यह एक भयंकर देवी का पराए दमन के विरुद्ध सतत आह्वान है'- सर वेलेंटाइन चिरोल ने 'इंडियन अनरेस्ट' नामक पुस्तक में लिखा था। इसके कुछ साल पहले जी.ए. ग्रियर्सन द टाइम्स (लंदन) में प्रकाशित एक लेख में (12 सितंबर, 1906) लिखा कि 'वंदे मातरम्‌की माँ मृत्यु और विनाश की देवी है।' चिरोल-ग्रियर्सन व्याख्या को सरकारी तौर पर रोलेट कमेटी रिपोर्ट (1918) में स्वीकार किया गया, जिसमें माना गया कि क्रमशः यह राष्ट्रगीत के स्तर तक उठ गया है। हमारे अपने नेताओं को भी कोई भ्रम नहीं था। बिपिनचंद्र पाल ने एक लेख 'मातरम्‌इन वंदे मातरम्‌' (वीकली न्यू इंडिया, अक्टूबर 1906) में कहा कि गीत की माता राष्ट्रमाता है। श्री अरविन्द ने (1908) लिखा कि 'न केवल यह राष्ट्रगीत है बल्कि पवित्र मंत्रों वाली सशक्त ऊर्जा से संयुक्त है। यह ऊर्जा आनंद-मठ के लेखक को प्राप्त हुई, जिसे अभिप्रेरित ऋषि की संज्ञा दी जा सकती है।' बंकिमचंद्र चटर्जी ने स्वयं इस गीत के बारे में कुछ नहीं कहा। हरीशचंद्र हलधर की 1885 की 'माँ' पेंटिंग में इस गीत का साफ असर दिखता है।

आज भी बलिदान और देशप्रेम की ज्वाला इस 'वंदे मातरम्‌' गीत के भीतर से क्षीण नहीं हुई है। अक्षरधाम मंदिर में आतंकवादियों द्वारा बच्चों को गोली मारने से पूर्व 'वंदे मातरम्‌' कहलवाने का क्या मतलब था? आज वंदे मातरम्‌का अनुवाद करके ए.आर. रहमान 'माँ तुझे सलाम' गाते हैं तो वह जज्ब होता है। ऐसी हालत में क्या झगड़ा सलाम और प्रणाम का है? 'वंदे मातरम्‌' में जो एक वाइब्रेटरी इनर्जी (प्रतिकम्पनकारी ऊर्जा) है वह इतिहास की अनुगूँज है। वह संस्कृत नहीं है, संस्कृति है। बलिदान, सर्वस्व समर्पण और त्याग की संस्कृति।

दक्षिणपंथ की प्रतिक्रिया में संस्कृत और संस्कृति से भी चिढ़ने का एक नया रिवाज इन दिनों नव-बुद्धिजीवियों में मैं देख रहा हूँ। पियरे बोर्दो ने सांस्कृतिक पूँजी के प्रति लापरवाही बरतने से कम्युनिस्टों को आगाह किया था, क्योंकि अन्यथा इस पूँजी का विनियोजन और निवेशन साम्प्रदायिक ताकतें कर ही लेंगी। लेकिन इन दिनों सहमत, सबरंग जैसी संस्थाओं ने 'साझा संस्कृति' का जो एक प्रकल्प शुरू किया है उसमें जो भी साझा नहीं है, वह ब्राह्मणवादी और साम्प्रदायिक होने से खारिज कर देने के लायक माना जा रहा है। एक सनातन संस्कृति को पुरातन होने के अपराध की सजा 'साझा कल्चर' के नए अस्त्र से दी जा रही है। लेकिन इस गीत को पुरातन के नहीं, नवप्रवर्तन के नजरिए से देखिए।

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