-नूपुर दीक्षित ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’, इस नारे को देश की आजादी के लिए ब्रहृम वाक्य का रूप देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश की आजादी के लिए देश से बाहर रहकर संघर्ष किया। उनकी वाणी इतनी तेजस्वी थी कि उनकी एक अपील पर हजारों लोग अपना सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हो जाते थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अँग्रेजों के देश से रवाना होने से पहले ही खुद को और अपने देश को आजाद घोषित करते हुए आजाद हिंद फौज और आजाद हिंद सरकार की स्थापना की।
अँग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर द्वितीय विश्व युद्ध के समय नेताजी सुभाषचंद्र बोस जर्मनी चले गए। फिर उन्होंने देश के बाहर रहने वाले भारतीयों को संगठित कर उन्हें देश की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध किया। आजाद हिंद फौज का गठन कर उन्होंने अँग्रेजों के खिलाफ एक नई क्रांति का सूत्रपात किया।
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हिंदुस्तान को आजादी मिलने के चार वर्ष पूर्व ही नेताजी ने आजाद भारत की आजाद हिंद सरकार का गठन कर लिया था। 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में संपन्न हुई एक सार्वजनिक सभा में नेताजी ने इस अस्थाई सरकार के संगठन की घोषणा की। इस सार्वजनिक समारोह में लगभग सात हजार भारतीय उपस्थित थे। इस समारोह में आजाद हिंद सरकार के अध्यक्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस एवं अन्य मंत्रियों ने देश की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने की शपथ ली थी।
इस अवसर पर आजाद हिंद सरकार ने अपना घोषणापत्र प्रस्तुत किया। इस घोषणापत्र में साफतौर पर कहा गया, ‘हमें बर्बाद करने वाली ब्रिटिश सरकार ने हमारी सारी श्रद्धा छीन ली है। उस पाशविक शासन के अंतिम अवशेषों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए एक भयानक क्रांति-ज्वाला की आवश्यकता है। आजाद हिंद सेना उस ज्वाला को सुलगाने के लिए जाग उठी है।’
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इस घोषणापत्र के अंत में भारतीयों से देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का आह्ववान किया गया। यह घोषणापत्र इतना अधिक प्रभावी सिद्ध हुआ कि इसके अगले ही दिन पचास हजार भारतीयों ने सार्वजनिक प्रदर्शन कर आजाद हिंद सरकार के प्रति विश्वास व्यक्त किया।
आजाद हिंद सरकार के गठन के बाद सिंगापुर में रह रहे भारतीयों के मन में देशभक्ति की ज्योति प्रज्ज्वलित हो गई और वे नेताजी के साथ हो गए। इन लोगों ने आजाद हिंद सरकार को उदारतापूर्वक अपनी जमापूँजी दान की।
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सन् 1943 में इन लोगों द्वारा दान की गई राशि से आजाद बैंक की स्थापना की गई, जिसका मूल धन साढ़े आठ करोड़ रुपए था।
नेताजी की आजाद हिंद सरकार को जर्मनी, जापान, इंडोनेशिया और फिलिपींस जैसे देशों ने मान्यता दी और इसके साथ राजदूतों का आदान-प्रदान भी किया। नेताजी की आजाद हिंद सरकार और आजाद हिंद फौज ने अँग्रेजों से जमकर लोहा लिया।
18 अगस्त, 1945 को एक विमान दुर्घटना में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु और विमान दुर्घटना को लेकर अनेक मतभेद हैं।
माइकल एडवर्ड ने उनके बारे में एक बार कहा था कि अँग्रेजों को अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी से कोई भय नहीं था। उनके मन में नेहरू का भी कोई डर नहीं था। यदि अँग्रेजों को किसी व्यक्ति से भय था तो वे थे - सुभाषचंद्र बोस।