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आजादी के 61 वर्ष बाद सिनेमा

बल्ले-बल्ले बॉलीवुड

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समय ताम्रकर

IFM
आजादी के बाद बॉलीवुड की इंद्रधनुषी दुनिया पर फ्लेश बैक के जरिए नजरें दौड़ाई जाएँ, तो सब कुछ बदला-बदला सा लगता है। दो हजार के नए मिलेनियम में तो सिनेमा का संसार पहले से कहीं ज्यादा सतरंगी हो गया है।

बदल गया हीर
सबसे पहले हीरो पर नजर जमाई जाए तो पाते हैं कि संघर्ष करते-करते वह हीरो बन पाता था। इन दिनों तो फिल्मी खानदान में पैदा होना, हीरो होने की निशानी बन गया है। फिल्मी हीरो पहले बेहद आदर्शवादी हुआ करते थे। लोगों को उनके चरित्र से बहुत कुछ सीखने को मिलता था, लेकिन अब हीरो बदल गए हैं। वे खलनायक जैसी हरकतें करने लगे हैं। शायद समाज में आए बदलाव से हीरो भी प्रभावित हो गए हैं। यही हाल हीरोइनों का है। कम कपड़े पहनने को ही अभिनय मान लिया गया है।

गुणवत्ता पर तकनीक भार
बात पते की है कि इन दिनों फिल्मों से कहानी यानी कंटेंट गायब हो गया है। कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना वाले अंदाज में थोड़ा इधर से, थोड़ा उधर से चुटकी भर आइडिया मारो और फिल्म तैयार। तकनीकी रूप से फिल्म का स्तर बहुत बढ़ गया है, लेकिन गुणवत्ता कम हो गई है। आज बिमल रॉय, गुरुदत्त, वी. शांताराम, सत्यजीत रे जैसे फिल्मकार नहीं हैं, जिन्होंने सीमित संसाधनों के जरिए अद्‍भुत फिल्में बनाई थीं।


कहाँ गए परिवार?
फिल्म से गायब हो गए हैं परिवार। ...और उनके साथ बिदा हो गए हैं दादा-दादी, नाना-नानी, भैया-भाभी, प्यारी बहना और ममतामयी माँ। आज का हीरो यह कभी नहीं कहता कि मेरे पास माँ है। वह कहता है मेरे पास एक अदद बीवी के अलावा दो-चार ‘व’ भी हैं। समाज में अब संयुक्त परिवार कम होते जा रहे हैं इसलिए फिल्मों पर भी इसका असर हुआ है।

नजर नहीं आती बहन
‘भैया मोरे राखी के बंधन को निभान’ राखी के त्योहार पर कोई बहना आरती सँजोए भाई को तिलक लगाने को बेकरार नजर नहीं आती। ‘मेरी प्यारी ब‍हनिया, बनेगी दुल्हनिया... भैया राजा बजाएगा बाज’ स्टाइल में भैया अपनी बहना को डोली में बैठाकर हमेशा के लिए सात समंदर पार कर आया है। अब वही भैया राजा गाते हैं- दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे।

लहूलुहान परद
एक्शन फिल्मों की बात करें, तो पचास-साठ के दशक में ढिशूम-ढिशूम करते हुए नायक अपने विरोधी खलनायक को दो-चार चाँटें या घूसें मारता था। बात बहुत बढ़ जाती थी तो दूर से चाकू दिखा देता था। सत्तर के दशक में चम्बल के बीहड़ से निकलकर तमाम डाकू फिल्मों के परदे पर बंदूक लेकर आ धमके और ठाँय-ठाँय शुरू हो गई। आगे चलकर यही डाकू, गब्बरसिंह बन गया, जो पचास-पचास कोस तक माँ की गोद में लेटे बच्चों को डराने लगा। ‘शोल’ फिल्म के बाद सिनेमा का परदा खून से लाल हो गया। खलनायकों के हाथों में मशीनगन आ गई। वह हेलिकॉप्टर से लटकते हुए गोलियों की बरसात करने लगा। सैकड़ों गब्बर मरते और रावण के सिर की तरह फिर जिन्दा हो जाते। अब एक्शन स्टाइलिश हो गया है और इस तरह की ‍हिंसा को पसंद करने वाला एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हो गया है।

आयटम साँ
डांसर कुक्कू की पतली कमर और तिरछी नजर का परदे पर पैसे फेंककर दर्शकों ने खूब मजा लिया। फिर हेलन कैबरे लेकर क्लबों, बार-रूम और होटलों में ‘‍मेरा नाम चिन-चिन च’ गाकर ऐसे नाचने लगी कि दर्शकों के दिल सीने से बाहर निकलकर जोर-जोर से धक-धक करने लगे। आशा भोंसले की मादक-मोहक उत्तेजक आवाज के जादू ने ‍बगैर पिए ही दर्शकों को सुरूर में ला दिया। अब फिल्मों की डांसर्स आयटम गर्ल या आयटम डांस होकर कम से कम कपड़ों में ‍मल्लिका शेरावत या राखी सावंत बनकर आने लगी है। आयटम सांग इतना जबर्दस्त फार्मूला बन गया है कि सुष्मिता सेन हो या ऐश्वर्या राय तमाम टॉप नायिकाएँ इन्हें करने में गर्व का अनुभव करती हैं। बिग-बी के साथ ऐश्वर्या कदमताल करते हुए कजरारे-कजरारे गाती है। उधर बिपाशा बसु अपनी खुली देह से दर्शकों को आमंत्रित करती है कि बीड़ी जलइले। यानी बिपाशा की देह अंगारा बन धधक रही है

बेसुरा हुआ संगीत
फिल्मी गानों का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। अब गानों में बोलों का कोई महत्व नहीं रह गया। सीधे-सरल शब्दों में बड़ी बात कह जाने वाले गीत अब सुनाई नहीं देते। मधुरता की जगह कानफोड़ू शोर को ही संगीत समझा जाने लगा है। हर कोई संगीत देने लगा है। गीत गाने लगा है। ढेर सारे लोग आ गए हैं लेकिन किसी में भी रफी, लता या नौशाद बनने की योग्यता दिखाई नहीं देती है। संगीत के मामले में बॉलीवुड कंगाल हो गया है।

करोड़ों का खे
पचास हजार, लाख दो लाख में पूरी फिल्म में शानदार तथा जानदार काम करने वाले दिलीप कुमार, राज कपूर, देवआनंद जैसे महानायकों को आज के खानों- शाहरुख, आमिर, सलमान, सैफ ने कमाई के मामले में मीलों पीछे छोड़ दिया है। अब हीरो करोड़ों की मजदूरी माँगते हैं। हीरो ऐसे माँगते हैं जैसे शेयर बाजार में सेंसेक्स का ग्राफ पल-पल ऊपर नीचे चढ़ता-उतरता है। पहले सिनेमाघरों के जरिए ही कमाई होती थी। अब कई दरवाजें खुल गए हैं। टीवी राइट्स, वीडियो राइट्स, सैटेलाइट राइट्स, संगीत, रिंगटोन, डीवीडी जैसे कई रास्तों से निर्माता पैसा कमाने लगे हैं।

मल्टीप्लेक्स की आँध
देश के ठाठिया थिएटर अब नई टेक्नालॉजी के असर से डिजीटल होने लगे हैं। गाँव के दर्शकों को जो नई फिल्में रीलिज से छ: महीने बाद देखने को मिलती थीं, अब जल्दी देखने को मिल जाती है। शहरों में मल्टीप्लेक्स कल्चर ने पैर पसार लिए हैं। इनके टिकट इतने महँगे होते हैं कि निम्न युवा वर्ग हो या मध्यम वर्ग सबकी चादर छोटी पड़ने लगी है। लेकिन युवा और कुँवारे दर्शकों की चाँदी हो गई है। वे बगल में प्रेमिका को बैठाकर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगे हैं, भले ही मल्टीप्लेक्स का अँधेरा उन्हें जेब पर भारी पड़ता हो। मल्टीप्लेक्स में एक ही दिन में ढेर सारे शो होने लगे हैं। नतीजन सफल से सफल फिल्म भी कुछ दिन ही चल पाती है। सिल्वर, गोल्डन और डायमंड जुबली अब बीते दिनों की बात हो गई है।

प्रवेश हुआ आसा
अब फिल्मों में प्रवेश पाने के लिए किसी को ज्यादा पापड़ नहीं बेलने पड़ते। भैंस चराने वाले रघुवीर यादव भी मैसी साब (हीरो) बन जाते हैं। अब प्रतिभाएँ खोजी जा रही हैं। रियलिटी शो के जरिए फिल्मों में अवसर मिलने लगे हैं। संघर्ष की राह अब उतनी कठिन नहीं रह गई है। आजादी के पहले सिनेमा और उनमें काम करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अब फिल्मों से जुड़ना शान की बात है। धन और प्रसिद्धी दोनों जो मिलते हैं।

इंडियबनाभार
भारत में बनी फिल्में बिहार, झारखंड, पंजाब की सीमा लाँघकर अब लंदन, कनाडा, न्यूयॉर्क और ऑस्ट्रेलिया में धूम मचाने लगी हैं। भारत से ज्यादा पैसा विदेशों की टिकट खिड़की पर बरस रहा है। विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बनाई जा रही हैं। इंडिया चमक रहा है और भारत की चमक फीकी होती जा रही है।

बॉलीवुड की धा
बॉलीवुड की फिल्मों का विश्व में दबदबा हो गया है। तकनीक और व्यवसाय के मामले में हम लगातार आगे बढ़ रहे हैं। और तो और हॉलीवुड की नामी-गिरामी कंपनियाँ और स्टुडियोज़ - कोलंबिया, वॉर्नर ब्रदर्स, सोनी बॉलीवुड की फिल्मों में धन लगाने लगे हैं। यानी उन्हें भी बॉलीवुड का महत्व स्वीकारना पड़ा।

बनी अंतरराष्ट्रीय पहचा
हमारे कलाकार इंटरनेशनल हो गए हैं। कॉन जैसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भारतीय कलाकारों को बुलाया जाने लगा है। फिल्में आमंत्रित की जा रही हैं। कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय फिल्मों के ऑफर हवा के झोंके की तरह आने लगे हैं। भारत की फिल्मों का मान बढ़ा और सम्मान मिलने लगा है।

अच्छी फिल्मों का सिलसिला जारी रहना चाहिए, ऐसी उम्मीद हम करते हैं।
जय हिन्द!

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