नेहा मित्तल
रात के समय नंदानगरी में सन्नाटा छाया हुआ था। पुलिस ने नंदानगरी में बीड़ी फैक्ट्री पर छापा मारा तथा सोलह बच्चों को फैक्ट्री मालिकों के हाथों से छुड़वाया। बच्चों की उम्र 5-14 वर्ष थी। गाँव से इन बच्चों को उनके माता पिता से खरीद कर शहर के व्यवसायियों को मोटी रकम में बेचा जाता था।
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, भारत में 1 करोड़ 30 लाख बाल श्रमिक हैं जो विभिन्न छोटे-बड़े उद्योगों में काम कर रहे हैं। भारत में वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, बेरोजगारी के कारण गाँव में करीब 80 प्रतिशत बच्चों को एक वक्त की रोटी नसीब नहीं होती है। इसलिए कम उम्र में ही इन बच्चों को बेहतर भविष्य के लिए बाहर काम करने के लिए भेजा जाता है ताकि घर में चूल्हा जल सके।
चलती बस या ट्रेन पर, विभिन्न वस्तुओं को लाद कर यह बच्चे दिन भर ग्राहकों के पीछे दौड़कर उन्हें बेचते रहते हैं। भारत में 1.67 प्रतिशत बच्चे घरों में काम करते हैं। इनमें से 3.15 प्रतिशत लड़कियाँ होती हैं। कालीन कंपनियों में तथा पटाखा निर्माण फैक्ट्रियों में बाल श्रमिकों को कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है।
सन 1986 में भारत सरकार ने बाल श्रम कानून लागू किया जिसके तहत 14 साल से कम उम्र के बच्चों को कहीं भी काम पर नहीं लगाया जा सकता। परंतु इस कानून का उल्लंघन लगातार किया जा रहा है। फलस्वरूप, गैरकानूनी तौर पर बाल श्रमिकों को कम वेतन के लिए असुरक्षित स्थितियों में काम के लिए विवश किया जाता है। धुँधली रोशनी में चहारदीवारों में कम उम्र के बच्चे काम कर रहे हैं। छोटी सी छोटी गलतियों के लिए इन पर हाथ उठाया जाता है। प्रतिदिन पंद्रह से अधिक घंटे काम कराया जाता है। अंत में सूखी रोटी दी जाती है।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में बाल श्रम सामाजिक बुराइयों को दर्शाता है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने कभी सोचा भी न होगाकि भारत के मासूम बच्चों को गुलाम बनाकर उनका शोषण किया जाएगा। जिन हाथों में किताब होनी चाहिए उन हाथों पर घाव के निशान है, तथा सुई और धागे चला रहे हैं। काँच की फैक्ट्री में तेज आँच के सामने घंटों खड़े रहकर उनसे काम कराया जाता है। इससे उनके स्वास्थ पर बुरा
प्रभाव पड़ता है। अक्सर ये बच्चे हृदय रोग या आँखों की समस्या से पीड़ित हो जाते हैं।
2007
में ब्रिटेन के प्रसिद्ध अखबार ऑब्जर्वर ने खुलासा किया है कि गैप कंपनी भारत में गैर कानूनी तौर पर दिल्ली में स्थित कपड़े की फैक्ट्री में बाल श्रमिकों से काम करवा रही है। इस खुलासे पर कई सवाल सामने आए हैं, कि क्या भारत सरकार का बाल श्रम निरोधक कानून इसके लिए पर्याप्त नहीं है। गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने में सरकार नाकामयाब रही है। भारतीय बाल श्रम मंत्रालय को, स्वयंसेवी संगठनों की आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। भारत सरकार सही प्रकार से बाल श्रम निरोधक कानून को लागू नहीं कर पाई है।बाल श्रम निरोधक कार्यकर्ताओं का कहना है कि बाल श्रम रोकने के लिए सरकार द्वारा लागू कानून की जड़ कमज़ोर है। क्या हम सरकार को या समाज को दोषी मानें? गरीबी बड़ा परिवार तथा दो वक्त की रोटी के लिए इन बच्चों को इतना काम करना पड़ता है। अक्सर माता पिता भी नहीं जानते कि इन बच्चों को कम उम्र में काम पर नहीं भेजना चाहिए। |
सामाजिक शोषण से बचाव के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए। भारत सरकार ने 1.2 करोड़ बाल श्रमिकों में से मात्र 3 लाख 92,413 को ही मुक्त करवा पाई है। |
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सामाजिक शोषण से बचाव के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए। भारत सरकार ने 1.2 करोड़ बाल श्रमिकों में से मात्र 3 लाख 92,413 को ही मुक्त करवा पाई है। इसी के मद्देनजर दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर भारत सरकार ने नया प्रोटोकॉल जारी किया है।
जिससे बाल श्रम पर रोक लग सके । शोषित बच्चों को पुनर्वास केंद्र या सरकारी संस्थानों में सुरक्षित रखा गया है। जहाँ पर उन्हें भोजन तथा नियमित शिक्षा दी जाती है।
कई बच्चों को घर भेजने का प्रयास किया जा रहा है। परंतु आर्थिक दुर्बलताओं के कारण कई परिवार इन बच्चों को वापस लेना अस्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में इन मासूम बच्चों को सरकारी संस्थानों में अपनी जिंदगी निर्वाह करनी पड़ती है।
इन संस्थानों में उन्हें पढ़ाया जाता है तथा आगे चलकर वे अपनी जिंदगी के राह चुनने के लिए स्वतंत्र होते है। क्या स्वतंत्र भारत में हमने इन बच्चों की आजादी को सुरक्षित रखा है या हमने उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता भी छीन ली है ?