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किसानों को आत्मनिर्भर बनाना होगा

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- सोमपाल शास्त्री
स्वतंत्रता इस मूल अवधारणा पर आधारित है कि व्यक्ति अपनी भावना को सही अभिव्यक्ति दे सके और अपनी आजीविका को सुचारु रूप से चला सके। धर्म की अवधारणा भी इसी पर आधारित है कि किसी और के काम में हस्तक्षेप किए बिना व्यक्ति अपना कर्तव्य स्वतंत्रतापूर्वक करे। इस नजरिए से समाज के प्रत्यके वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति के वैधानिक अधिकार की रक्षा करना शासक का कर्तव्य हो जाता है।

लोकतंत्र में वैधानिक अधिकारों की रक्षा इसलिए सुनिश्चित मानी जाती है
ND
क्योंकि सरकार किसको बनाना है यह जनता ही तय करती है। पर आजाद भारत में देखें तो किसानों के वैधानिक अधिकारों की रक्षा नहीं हो रही है। वह शासकीय तंत्र का गुलाम बनकर रह गया है।

किसान खुद अपनी जमीन के मालिक नहीं हैं, जिससे उन्हें हर तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है। उन्हें हर छः महीने पर जमाबंदी रिकॉर्ड जमा कराना होता है, तो दूसरी तरफ कर भी देना होता है। यह व्यवस्था उपनिवेशवादी शासकों ने लागू की थी। तब से लेकर आज तक यह व्यवस्था कायम है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के किसान मनमाफिक तरीके से अपनी संपत्ति नहीं बेच सकते।

वहीं देखिए तो जमीन पर मालिकाना हक नहीं होने के साथ-साथ अपने उत्पादों को अपनी मर्जी से जहाँ चाहें वहाँ बेचने का अधिकार भी उनके पास नहीं है। उसके उत्पादन की बोली कोई और लगाता है। मध्यप्रदेश की व्यापारिक राजधानी माने जाने वाले इंदौर की मंडी में आप जाइए तो वहाँ छोटा किसान जो सिर पर एक टोकरी में गोभी या टमाटर भरकर मंडी लाता है वह स्वयं नहीं तय करता कि उसकी गोभी या टमाटर किस भाव में बेचे जाएँगे। उस पर अढ़ाती पहले उसकी टोकरी से दो-चार गोभी या एक-दो किलो टमाटर निकाल लेता है, जिस पर वह अपना अधिकार समझता है।

फिर चार से आठ प्रतिशत तक अढ़ाती ली जाती है, जिससे एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग एक्ट की अवहेलना होती है। वैधानिक तौर पर मंडी कर के अलावा किसानों से कोई और कर नहीं लिया जा सकता पर अढ़ाती इतने मनमौजी कि वे खुलेआम किसानों से कर लेते हैं। यह सब प्रशासन की नाक के नीचे होता है पर इसकी ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। दूसरी तरफ किसान यदि अपने इलाके की मंडी छोड़कर दूसरी मंडी में अपना उत्पाद बेचना चाहे तो उसे परमिट की जरूरत पड़ती है। मैंने मध्यप्रदेश में इस व्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश की पर सरकार ने उस ओर दिलचस्पी नहीं दिखाई।

साहूकारों के हाथों का खिलौना बनना किसानों की मजबूरी है। किसान यदि ट्रैक्टर, जनरेटर, थ्रेसर खरीदने, पशु खरीदने या किसी अन्य वजहों से बैंकों से कर्ज लेना चाहे तो उसके लिए इतनी लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है कि किसानों को साहूकारों से अधिक सूद अदा करने की कीमत पर कर्ज लेना ज्यादा मुनासिब लगता है। मैं ऐसे कई किसानों से मिला हूँ जिन्हें ट्रैक्टर खरीदने के लिए अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ी।

ये मूलभूत बातें हैं, जो किसानों को आजाद भारत में भी गुलाम बना देती हैं। किसानों की जमीनों पर अधिग्रहण करना सरकार के लिए सबसे आसान है। वह जब चाहे किसानों से जमीन लेकर उद्योगपतियों और पूँजीपतियों को बेच सकती है। सुप्रीम कोर्ट का साफ आदेश है कि किसानों की भूमि सार्र्र्वजनिक कार्यों के लिए अधिग्रहीत की जाए, पर उद्योगपतियों को जमीनें निजी उपयोग के लिए धड़ल्ले से दी जाती हैं। अधिग्रहण के समय किए गए वादे तक किसानों से पूरे नहीं किए जाते।

वास्तव में उन्हें जो मूल्य प्राप्त होता है वह वास्तविकता से बहुत कम होता है। मध्यप्रदेश सरकार ने भोपाल हवाई अड्डे के निर्माण के लिए प्रति एकड़ जमीन 25-26 लाख रुपए औसत मूल्य तय किया था, पर किसानों को महज 1 लाख 73 हजार रु. प्रति एकड़ मूल्य दिया गया। किसानों के लिए सरकार का यह दोहरा मानदंड है या नहीं।

किसानों को आत्मनिर्भर बनाने और उनका आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि गाँवों में बुनियादी सुविधाएँ सुनिश्चित की जाएँ। गाँवों में बिजली पहुँचे, सड़क बने, सिंचाई की सुविधाएँ बढ़ें तो किसानों को खेती करना आसान रहेगा। तो दूसरी तरफ खेती के अलावा उनका तकनीकी ज्ञान और कौशल भी बढ़ाना चाहिए, जिससे कि वे वैकल्पिक रोजगारों पर भी विचार करें। जब तक किसानों का हाथ मजबूत नहीं होगा देश की बेतहाशा बढ़ रही जनसंख्या की भूख मिटाने के लिए खेतों और किसानों पर पड़ने वाले दबाव को झेलना मुश्किल होगा।

(लेखक राष्ट्रीय किसान आयोग के पहले अध्यक्ष, मप्र योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष, केंद्रीय योजना आयोग के और 12वें वित्त आयोग के सदस्य रह चुके हैं)

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