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साठ परतों वाला नकाब

हमें फॉलो करें साठ परतों वाला नकाब
- चिन्मय मिश्र

आजादी के बाद देश ने जो प्रगति की उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान कृषि और शिक्षा का ही था। आज इन दोनों पर विचार करें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

आजादी के बाद के साठ साल का मूल्यांकन कोई आसान कार्य नहीं है। प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर हम स्वयं का मूल्यांकन करते हैं और अपनी पीठ खुद ही ठोकते नजर आते हैं। यह कहना भी गैरवाजिब होगा कि देश ने आर्थिक, औद्योगिक या शिक्षा के क्षेत्र में कोई तरक्की नहीं की है, परंतु यदि तरक्की से मिलने वाले प्रतिफल देश की जनता को समान रूप से न मिल पाएँ तो इसे किसका दोष कहना चाहिए?

ND
नई आर्थिक नीति को अपनाए हुए भी अब पंद्रह बरस से अधिक होने को आए। भारतीय शहरी वर्ग का एक हिस्सा एकाएक विश्व स्तर का हो गया। उसने अपने जीवन जीने के तरीके तक को विकसित राष्ट्रों की भाँति अत्यधिक सुविधाभोगी और एकाकी बना लिया। इस वर्ग ने स्वयं को एक आर्थिक मनुष्य तक सीमित कर लिया। अपनी सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारियों का तो उसे जैसे कोई एहसास ही नहीं है।

वैसे इस सबमें एक आम आदमी से ज्यादा योगदान आर्थिक योजनाकारों का रहा है। उन्होंने जानबूझकर योजनाओं को इस दिशा में केंद्रित किया कि जिससे शहरीकरण बढ़े। गाँव में कृषि व रोजगार पर न्यूनतम निवेश की नीति बनाई गई। एक ओर जहाँ ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में 11 हजार करोड़ रुपए में देश के 230 जिलों के करोड़ों लोगों को मात्र 100 दिन के रोजगार उपलब्ध करवाने की बात को लेकर इतना प्रचार किया गया कि लगने लगा था कि अब देश में खुशहाली का दौर आने ही वाला है, परंतु पिछले एक साल के दौरान इस योजना की उपलब्धियों पर नजर डालें तो पाएँगे कि इसका बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की ही भेंट चढ़ गया है। यह भी तब जबकि इस योजना में आवंटित धनराशि का अधिकतम 38 प्रतिशत ही उपयोग हो पाया है।

वहीं विशेष आर्थिक क्षेत्रों के माध्यम से चुनिंदा उद्योगपतियों को करों की छूट के रूप में मिलने वाली 85 हजार करोड़ रुपए की छूट चुपचाप बिना किसी प्रचार के स्वीकृत कर दी जाती है? ऐसा क्यों?

आजादी के बाद देश ने जो प्रगति की उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान कृषि और शिक्षा का ही था। आज इन दोनों पर विचार करें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं और शिक्षा धनवानों की बपौती हो गई है। पहले मातृभाषा में पढ़ने वाले का संघर्ष जहाँ सिर्फ अँगरेजी भाषा से था, जिस पर कि वह विजय पा भी सकता था, परंतु अब तो उसे धन से भी संघर्ष करना है। अगर भारत सरकार की आर्थिक स्थिति इस बात की अनुमति देती है कि वह विशेष आर्थिक क्षेत्र में कुल मिलाकर 1 लाख करोड़ रुपए से अधिक ही छूट करों के रूप में देने की स्थिति में है तब तो वह प्रत्येक छात्र के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान भी आसानी से कर सकती है।

  आजादी के बाद के साठ साल का मूल्यांकन कोई आसान कार्य नहीं है। प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर हम स्वयं का मूल्यांकन करते हैं और अपनी पीठ खुद ही ठोकते हैं। यह कहना भी गैरवाजिब होगा कि देश ने आर्थिक, औद्योगिक या शिक्षा के क्षेत्र में कोई तरक्की नहीं की है।      
शिक्षा को तो व्यापारी ही नहीं सरकारें भी आमदनी का जरिया मान बैठी हैं। इस संबंध में अभी नवीनतम सुझाव यह आया है कि 'वेट' की दर कम होने से राज्यों को जो घाटा हो रहा है, इसकी प्रतिपूर्ति वे अपने राज्यों में शिक्षा संस्थानों पर स्थानीय कर लगाकर कर सकती हैं। यह सुझाव वेट की उस समिति की ओर से आया है जिसके अध्यक्ष पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार में वित्तमंत्री असीम दासगुप्ता हैं।

आज जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र कमोबेश निष्क्रिय हो चुका है और इन सेवाओं पर 'कर' का भार अंततः आम जनता पर पड़ेगा और जितने प्रतिशत कर लगेगा उससे दुगने प्रतिशत नागरिक इन सेवाओं को पाने में असमर्थ हो जाएँगे। सबसे मजेदार बात यह है कि इस तरह के 'कर' लगाने का निश्चय तब किया, जबकि इस वर्ष अप्रैल से जून के दौरान तीन महीने की अवधि में वेट के माध्यम से वसूल की गई राशि में 24.6 प्रतिशत की असाधारण वृद्धि हुई है।

आजादी के इस मौके पर अब तो ऐसा लगने लगा है कि भारतीय समाज का एक तबका प्रौढ़ हो गया है। साथ ही उस तबके की प्रतिबद्धता भारतीय जनमानस के प्रति न होकर विश्व सरकार के विभागों के रूप में कार्यरत विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, एशियाई विकास बैंक जैसी संस्थाओं के प्रति है। इस तरह वह अपनी समझदारी (?) से सारे देश का भाग्य अपने पक्ष में लिख रहा है।

सरकारी विज्ञापनों, कारपोरेट जगत की बढ़ती पूँजी, बड़े-बड़े शॉपिंग माल, चंद आभिजात्य शिक्षा एवं स्वास्थ्य संस्थानों के बरक्स शाक एब्जार्वर हेतु कुछ कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से यह अफवाह फैला दी गई है कि आम भारतीय के दुःख-दर्द अब समाप्त हो गए हैं। वैसे वास्तविकता को यदि एक बार पुनः जाँ-निसार अख्तर के शब्दों में देखें तो,

'वतन से इश्क, गरीबी से बैर, अमन से प्यार,
सभी ने ओढ़ रखे हैं, नकाब जितने हैं।'

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