आजादी के 61 वर्ष बाद स्वास्थ्य
स्वतंत्र चिंतन और सकारात्मक सोच जरूरी
आजादी के छ: दशकों में यदि भारत ने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है तो महिलाएँ भी इस उड़ान से अछूती नहीं रही हैं। यह महिलाओं में भी अपने स्वास्थ्य के प्रति आई अभूतपूर्व जाग्रति का ही परिणाम है कि उन्होंने साल-दर-साल अपनी सेहत में सुधार करते हुए राष्ट्रीय प्रगति में अपना हाथ बँटाया है।
रिसर्च सेंटर के सर्वे के अनुसार राष्ट्र में 76 फीसदी महिलाएँ अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं। उन्हें इस बात की चिंता है कि यदि उन्होंने अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही बरती तो उसका असर न केवल उनके घर-परिवार पर बल्कि अपरोक्ष रूप से उनके सामाजिक विकास पर भी पड़ेगा।
कामकाजी महिलाओं में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता घरेलू महिलाओं से अधिक देखी गई है क्योंकि उन्हें अपने घर के साथ दफ्तर का काम भी संभालना होता है। उन्हें इस बात का दायित्व बोध है कि सेहत के प्रति लापरवाही उन्हें महँगी पड़ सकती है।
महिला विशेषज्ञ डॉ. मेहरा के अनुसार '50 फीसदी कामकाजी महिलाएँ स्वयं को फिट रखने पर अधिक ध्यान देती हैं क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास होता है कि शारीरिक अक्षमता उनकी तरक्की में बाधक है। इसके अलावा 40 फीसदी कामकाजी महिलाओं का यह मानना है कि उनका स्वास्थ्य संतुलित रहना चाहिए।'
बदलते परिवेश के साथ-साथ घरेलू महिलाओं में भी अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आई है। आज वे भी स्वयं को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए संतुलित आहार, योग व संयमित दिनचर्या पर विशेष ध्यान देती हैं।
यह सब आजादी के बाद महिलाओं की सोच व मानसिकता में परिवर्तन का ही परिणाम है। परिवर्तन की इस बयार में महिलाओं ने अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान केंद्रित किया।
एक शोध के अनुसार '77 फीसदी महिलाएँ अब इस बात को लेकर चितिंत हैं कि वे शारीरिक रूप से निरोगी कैसे रहें, जिसके लिए वे योग एवं संतुलित आहार को एक प्रमुख साधन मानती हैं।'
इन तमाम बातों के बीच एक गौरतलब पहलू यह भी है कि समाज में आज महिलाओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत नहीं है, जिसके पीछे एक कारण यदि जागरूकता का अभाव है तो अशिक्षा, घर-परिवार की स्थिति व सामाजिक वातावरण भी है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के एक दशक बाद भी महिलाओं का यह वर्ग यदि सेहत के प्रति जागरूक नहीं बन पाया है तो इसके कारणों को खोजना चाहिए। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ. बालकृष्ण चौहान कहते हैं कि 'महिलाओं को आजादी के बाद घर की चहारदीवारी के बाहर निकालने के प्रयास तो किए गए हैं, परंतु यदि उन्हें स्वास्थ्य के प्रति सचेत न किया गया तो इसके भारी नुकसान उठाने पड़ेंगे।
डॉ. चौहान का यह कथन उस तथ्यात्मक स्वीकारोक्ति की ओर संकेत करता है, जिसमें कहा गया है कि 'महिलाएँ समाज व राष्ट्र की उत्तरोत्तर प्रगति में मौन मगर महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उनका शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना बेहद जरूरी है।'
हमारे यहाँ वैसे भी शरीर को समस्त साधनों की प्राप्ति का साधन कहा गया है। इस दृष्टि से भी महिलाओं का स्वस्थ रहना जरूरी है।
स्वतंत्रता दिवस की वर्षगाँठ पर समाज को निश्चित ही महिलाओं की सेहत पर विचार करना चाहिए। 'समय और परिवेश बदलने के साथ-साथ विचार भी बदलना चाहिए' , इस दृष्टि से भारतीय महिलाओं में आज भी एक स्वतंत्र चिंतन जरूरी है फिर चाहे वह मामला सेहत से जुड़ा हो या विकास से।