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किसानों के हितों की रक्षा जरूरी

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- कमलनाथ
विश्व व्यापार संगठन की जिनेवा बैठक बेनतीजा रहने का दोष विकसित देश भारत के सिर मढ़ रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत ने सिर्फ अपने और दूसरे विकासशील देशों के किसानों के हितों के संरक्षण का मुद्दा उठाया। भारत वार्ता को किसी नतीजे तक पहुँचाने के खिलाफ नहीं था लेकिन हम किसानों के हितों के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते थे इसलिए हम अमेरिका और योरपीय देशों के दबाव के आगे नहीं झुके।

मेरा कहना था कि जिनेवा बैठक का उद्देश्य विकसित देशों को और अमीर बनाना नहीं है
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बल्कि विकासशील देशों को संपन्न बनाना है। इससे साबित हो गया है कि भारत किसी भी कीमत पर अपने किसानों के हितों के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। हमारा यह रुख उन ताकतों के उस आरोप का जवाब है, जो यह कह रहे थे कि अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके यूपीए सरकार देश की प्रभुसत्ता के साथ समझौता कर रही है और हम अमेरिका के दबाव में आते जा रहे हैं।

कम से कम उन लोगों की आँखें अब खुल जानी चाहिए कि कांग्रेस के लिए राष्ट्रहित और देश की संप्रभुता से बड़ा कुछ भी नहीं है। हम अमेरिका से परमाणु समझौता भी कर रहे हैं और जब देश के किसानों की लड़ाई का सवाल आया तो विश्व व्यापार संगठन के मंच पर हम उसमें भी पीछे नहीं हटे। दरअसल, हमारा यह कदम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के किसानों की आवाज को उठाना और विश्व बाजार के साथ उनकी लड़ाई को मजबूती से लड़ना भी है।

अमेरिका और दूसरे विकसित देशों का यह दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है कि भारत और दूसरे विकासशील देश अपने किसानों को दी जाने वाली सबसिडी घटाएँ और कृषि उत्पादों पर अपना आयात कर भी कम करें। उनकी कोशिश है कि वे भारत के बाजार में प्रवेश करें। आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में हम अपने बाजार में किसी के प्रवेश के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन हम अपने किसानों को सिर्फ बाजार की दया पर नहीं छोड़ सकते हैं।

हम चाहते हैं कि हमारे किसानों के कृषि उत्पाद भी देसी और विदेशी बाजार में बराबर प्रतियोगिता कर सकें। अगर विदेशी कृषि उत्पाद भारत के बाजार में आते हैं तो उनसे देश के किसानों की रोजी-रोटी पर संकट नहीं होना चाहिए, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार आज भी कृषि क्षेत्र पर ही टिका है। फिर हमारे किसानों की जोत भी अमेरिका और दूसरे विकसित देशों के किसानों की जोत की अपेक्षा बेहद कम है।

विकसित देशों की तुलना में भारत में प्रति एकड़ प्रति फसल आमदनी भी बेहद कम है। ऐसे में हम अगर अंतरराष्ट्रीय दबाव में अपने किसानों को कृषि क्षेत्र में मिलने वाली सबसिडी और आयात शुल्क घटा दें तो हमारे किसानों की कमर टूट जाएगी, जबकि हमारी माँग है कि भारत के किसानों को भी अमेरिका और दूसरे देशों के किसानों के मुकाबले बराबरी पर प्रतियोगिता का मौका मिलना चाहिए। अगर विदेशी माल को भारत के बाजार में छूट चाहिए तो वैसी ही छूट भारत के किसानों को भी विदेशी बाजारों में मिलनी चाहिए।

जहाँ तक अमेरिका से रिश्तों की बात है हम उसके साथ बेहतर संबंध चाहते हैं। परमाणु समझौता भी इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। लेकिन अमेरिकी रिश्तों के लिए हम अपने किसानों के भविष्य से समझौता नहीं कर सकते हैं। हमें पहले किसानों को देखना है, उसके बाद अमेरिका है। परमाणु समझौता देशहित में है, लेकिन विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) देशहित में नहीं है। कुछ लोग भले ही मेरे कदम की अपने तरीके से व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन मुझे भारत और दूसरे विकासशील देशों के किसानों और गरीबों के हित में जो सही लगा, मैंने वही किया।

किसानों के लिए विशेष संरक्षण तंत्र (स्पेशल सेफ गार्ड मैकेनिज्म यानी एसएसएम) का मुद्दा विकासशील देशों के लिए बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है, क्योंकि आयातित माल की बाढ़ की वजह से कृषि उत्पादों की कीमतों में आने वाली गिरावट से एसएसएम के जरिए ही इन देशों के गरीब किसानों को तबाह होने से बचाया जा सकता है, जबकि विकसित देशों के लिए यह सिर्फ व्यावसायिक और व्यापारिक हितों का सवाल है। विकसित देश चाहते हैं कि व्यापारिक और वाणिज्यिक हितों को किसानों के जीवन-यापन और रोजमर्रा की जिंदगी के सुरक्षा तंत्र के ऊपर तरजीह दी जाए, लेकिन हम किसी कीमत पर करोड़ों किसानों की जिंदगी को दाँव पर नहीं लगा सकते हैं।

जिनेवा वार्ता में भारत के रुख को लेकर फायदे-नुकसान की चर्चा भी हो रही है लेकिन मेरा मानना है कि इसे दीर्घकालीन नजरिए से देखा जाना चाहिए। यह सिर्फ एक-दो बैठकों का अल्पकालीन मामला नहीं है। हम आगे भी बातचीत जारी रखेंगे लेकिन इस पर भी नजर रखेंगे कि हमारे किसानों के हित सुरक्षित रहें और देशहित से कोई समझौता न हो।

जहाँ तक विश्व अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत की भागीदारी का सवाल है तो हमने लगातार इस दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। भारत ने चीन और पाकिस्तान के साथ कई व्यापारिक और आर्थिक समझौते किए हैं। देश में अमेरिका और योरप से प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश और आयात में लगातार वृद्धि हुई है। कई नए क्षेत्रों को इसके लिए खोला गया है।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत द्वारा कृषि, ऑटोमोबाइल और कपड़ा उद्योग जैसे संवेदनशील क्षेत्रों से अपना नियंत्रण खत्म कर उसे पूरी तरह विदेशी बाजार के हवाले छोड़ दिया जाए। यही वजह है कि आयात शुल्क और कृषि क्षेत्र की सबसिडी में कटौती के मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन में भारत के विरोध का देश के औद्योगिक जगत ने भी स्वागत किया है। देश के सभी वाणिज्यिक संगठन और उद्योग संघ हमारे कदम से सहमत हैं।

मैं मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के एक पिछड़े इलाके से चुनकर आता हूँ और मैंने किसानों और गरीबों की रोजमर्रा की जिंदगी को बेहद करीब से देखा है। इसलिए जब भी किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसानों के हितों का सवाल आता है तो मेरे लिए देश के किसान और गरीबों का हित सबसे पहले है, क्योंकि आर्थिक उदारवाद का यह अर्थ नहीं है कि हम अपनी आर्थिक संप्रभुता और आत्मनिर्भरता से कोई समझौता करें।

अगर हम आयात शुल्क और कृषि सबसिडी के विश्व व्यापार संगठन में अमेरिका और योरपीय देशों के आग्रह को स्वीकार कर लेते तो भारत और दूसरे विकासशील देशों की कृषि अर्थव्यवस्था को भारी क्षति होती। जहाँ अमेरिका में सिर्फ दो प्रश आबादी ज्यादातर व्यावसायिक और व्यापारिक कृषि से जुड़ी है, वहीं भारत में कुल आबादी का दो-तिहाई हिस्सा आज भी जीवन-यापन के लिए कृषि पर ही निर्भर है। इनमें से एक बड़े हिस्से की रोजी-रोटी सिर्फ खेती से ही निकलती है।

मुझे इस बाद पर आश्चर्य है कि एक योरपीय मुर्गी भारतीय मुर्गी से सस्ता अंडा कैसे देती है, क्योंकि उसे ज्यादा सबसिडी मिल रही है। योरप की कृषि व्यवस्था को देखने के लिए एक बार मैंने पेरिस से ब्रुसेल्स तक ट्रेन की यात्रा की और मैंने सरकारी सबसिडी के चारे से पल रही मोटी ताजी गायों के झुंड देखे। इसलिए जिनेवा में हमने अपने किसानों को संरक्षण देने के लिए सिर्फ उतना ही माँगा जितना कि अमेरिका और योरप के कृषि क्षेत्र को मिल रहा है। पिछले कुछ सालों में अमेरिका ने वस्त्र उद्योग पर 28 गुना शुल्क वृद्धि की है।

इसलिए भारत को भी अपने किसानों और अपने उद्योगों की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम उठाने होंगे जिनमें आयातित माल पर शुल्क लगाने का अधिकार होना चाहिए। साथ ही भारत और विकासशील देशों को आर्थिक प्रतियोगिता में बराबर का मौका देने के लिए विकसित देश कृषि एवं अन्य क्षेत्रों को अपने यहाँ दी जाने वाली सरकारी सबसिडी में भी कटौती करें। इसके बाद ही स्वस्थ और बराबर के स्तर पर आर्थिक व्यापारिक प्रतियोगिता हो सकेगी और सभी को बराबर का लाभ मिलेगा।
(लेखक केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री हैं।)

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