अंबानी, मित्तल, टाटा आदि के नाम तो अक्सर अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में छाए रहते हैं लेकिन हाल ही में भारत की लघु वित्त संस्थाओं के नाम भी 'फोर्ब्स' पत्रिका में आए हैं। इसमें विश्व की 50 शीर्ष लघु वित्त संस्थाओं की सूची प्रकाशित हुई है, जिसमें से सात भारतीय हैं! किसी भी अन्य देश की इतनी अधिक संस्थाओं ने इस सूची में स्थान नहीं पाया है।
गत वर्ष के अंत में जारी इस सूची में बंगलोर की 'बंधन' संस्था दूसरे क्रम पर है, जबकि 'माइक्रोक्रेडिट फाउंडेशन ऑफ इंडिया' 13वें तथा 'साधना माइक्रोफिन सोसायटी' 15वें क्रम पर है। ये तीन भारतीय संस्थाएँ इस सूची में बांग्लादेश की विख्यात ग्रामीण बैंक से भी आगे रखी गई हैं, जो नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। स्पष्ट है कि नए युग में भारत के अरबपति उद्योगपतियों का ही डंका विश्व में नहीं बज रहा बल्कि निचले स्तर पर, समाज के वंचित तबकों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में जुटे संगठन भी दुनिया में किसी से कम नहीं हैं।
वैश्विक खरीदी पर निकली भारतीय कंपनियाँ
ऐसा मौका भारतीय कंपनियों के लिए पहले कभी नहीं आया था। अर्थव्यवस्था के विकास की दर ने भारतीय कंपनियों को भारत से बाहर जाने और हिम्मत करके विदेशी कंपनियाँ खरीदने का आत्मविश्वास दिया। वर्ष 2008 के पहले 6 माह में भारतीय कंपनियों ने 161 विदेशी कंपनियाँ अधिगृहीत की। वर्ष 2006 से इस प्रक्रिया में काफी तेजी आई थी और मात्र दस महीनों में ही भारतीय कंपनियाँ एक हजार करोड़ से ज्यादा के सौदे कर चुकी थीं।
टाटा स्टील द्वारा 8.1 अरब डॉलर खर्च कर कोरस को खरीदने के बाद से भारतीय कंपनियों को संपूर्ण विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा था। इसके अलावा एनआरआई लक्ष्मी मित्तल की कंपनी मित्तल स्टील्स द्वारा 33.5 अरब डॉलर की लागत से आर्सेलर को खरीदना भी काफी महत्वपूर्ण कदम रहा।
ऐसा नहीं था कि केवल बड़ी भारतीय कंपनियों ने ही विदेशी कंपनियों को खरीदा हो बल्कि वीडियोकॉन समूह द्वारा फ्रांस की कंपनी थॅमसन, सुजलॉन एनर्जी द्वारा बेल्जियम की कंपनी हेनसन को खरीदना हो या फिर डॉ. रैड्डीज द्वारा जर्मनी की कंपनी बिटाफार्म को खरीदना हो, भारतीय कंपनियों ने बड़े धीरज के साथ ये सौदे किए।
पहले स्वयं को मजबूत बनाया
भारतीय कंपनियों के बारे में विदेशी विशेषज्ञों का मानना है कि वर्ष 1991 से आरंभ हुए आर्थिक सुधारों के पश्चात इन कंपनियों ने पहले अपने आप में बदलाव लाया और अपनी क्षमताओं को वैश्विक स्तर पर ले आईं। इसके बाद अपने देश में ही प्रतिस्पर्धा काफी ज्यादा बढ़ने के कारण लाभ को बरकरार रखने हेतु इन कंपनियों ने विदेशी कंपनियों की ओर रुख किया।
भविष्य में और तेजी आएगी
विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय कंपनियाँ अब किसी जल्दी में नहीं हैं तथा अपनी क्षमताओं को पहचानती हैं। भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी कंपनियाँ खरीदने का सिलसिला जारी रहेगा और वर्ष 2020 तक इसमें और भी तेजी आने की संभावना है। अर्थशास्त्री एशियाई देशों के विकास के मामले में भारत और चीन की तुलना अक्सर करते रहते हैं पर विदेशी कंपनियों को खरीदने के मामले में भारतीय कंपनियाँ ही आगे रहने की संभावना है, क्योंकि चीन में अधिकांश कंपनियों में सरकार का दखल काफी ज्यादा है जबकि भारत में निजी कंपनियाँ अपने कार्य करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहती हैं। (नईदुनिया)